उत्सव के प्रांगण सा ,
देखा था शहर ,
सब कुछ नैसर्गिग स्वरूप में ,
चलता था .
रोज बैल-गाड़ियों में ,
खानों से लदे फंदे आते थे पत्थर ,
जिनमें गाड़ीवान बड़े मजे से
फूंक रहा होता था तम्बाकू ,
और बैलों के गले में ,
रुनझुन-रुनझुन करती घंटियाँ ,
एक कसैला गीत गूंजता ,
शहर के चलते पथ को ,
इंगित करता था .
वहीँ नंग-धडंग लांगुरिया का टोला ,
भरी नहर के बहते पानी में कूद-कूद,
सारे शहर को स्वर देता था .
अब ना जाने कहाँ बैलगाड़ियां ,
मोटर की धमा चोकड़ी में ,
कहीं कोने में धूल फांकती ,
या, दीमक का ग्रास बनती खोती है ,
पानी वाली नहर में,
पानी के संग मेला घुल कर ,
सड़ांध मार कर ,
अपने परिवर्तन पर रोती है ,
जैसे कोई नगर-वधु ,
अपने रुज-ग्रस्त तन से घिन भरती है .
कल का लंगुरिया का टोला,
चुर्री ,पन्नी और भूरी शक्कर के कश में ,
या बोतल के पानी के घूँट घटक ,
सोया है लावारिस सा ,
अब शहर चिल्लाता है.
किसी तीर्थघाट सा ,
या वृन्दावन सा ,
देखा शहर ,
जहां झील के घाटों पर स्त्री-पुरुषों के झुण्ड ,
नत नयनों से वस्त्रों को पटक-पटक कर ,
उज्ज्वलता को पाने के प्रयत्न में ,
मानों नीले ठंडे पानी से शुचिता ही ,
घर ले जाने को हैं तत्पर ,
उधर दूसरी ओर ,
सप्तध्व्जाधारी द्वारकाधीश-मंदिर से ,
दर्शन का हेला हो जाता,
तब ,
बच्चे -बूढ़े, स्त्री-पुरुषों को ,
मंदिर की चौखट पर ,
शीर्ष नवाते देखा ,
तुलसीपत्रों को कर-कमलों में बंद किये ,
पाटलपत्र सरीखे होठों पर स्वस्तिवाचन करते ,
अपरिचित में भी परिचित का अनुभव भर-भर ,
नागर-जन के चन्दन-चौवा की सौरभ से ,
सारे शहर में अपनापन भर जाता था .
अब झील कभी-कभार भरती है ,
भरी झील का पानी अमृत सा ,
दिन प्रति दिन बहुत विषैला ,
जिस को छू लेने में भी डर लगता है .
घाटों पर अब वह मर्यादा कहाँ रही ,
हर कोई बंद हुआ ,
फव्वारे में ही गीला होता है .
मंदिर के पट रोज खुल रहे ,
तुलसीपत्रों और स्वस्तिवाचन ,
अब उपास्य के चरणों से ,
विलग नहीं हो पाते ,
अब शहर अपरिचय के अन्दर ,
अपना दम घोंट रहा है.
प्रति दिवस की ,
प्रथम किरण से ,
किसी मेले-ठेले सा ,
सजता देखा शहर ,
दूधिया साइकिलों की ,
खड़-खड़, खड़-खड़,,
ट्रिन-ट्रिन , ट्रिन-ट्रिन में ,
फेरी वाले , सब्जिवालें ,
चक-चक चिल्लपों में ,
हर घर को नाम लिए पुकारते ,
जैसे वे अपने सम्बन्धी के घर आये हैं ,
गृहवधुएँ उतने ही अनुराग से ,
उन से दूध-दही ,सब्जी-भाजी लेती ,
एक मधुर स्मित से ,
सबको उन का दाय सौंपती ,
या,
सहज भाव से कल फिर आने का न्यौता दे देती ,
वे भी अपनत्व भाव से शीर्ष हिलाते , मुस्काते ,
ऐसे आगे बढ़ जाते थे मानों ,
यह तो उनके अर्थ-शास्त्र का हिस्सा है ,
इसी अर्थ-शास्त्र के अघोषित विधान में ,
सारा शहर विकास पाता था .
अब फेरी वाले से लेकर दूधिये तक ,
सब धीरे-धीरे कहीं गुम होते जाते हैं ,
बड़े शहर की तरह ही अब ,
डिब्बों और थैली में बंद सामग्री ,
सब्जी-भाजी फल तक मोल में बिका करते हैं
कृत्रिम हंसी में जहां तन्वंगी कन्याएं,
आधुनिक अर्थ-शास्त्र का हिस्सा है,
जिस में अर्थ प्रमुख बाकी सब गौण हुआ जाता है ,
अब शहर हमेशा
अपने गुणा-भाग में जीता है.
वीथी-वीथी चौराहे पर ,
किसी कर्मक्षेत्र सा ,
व्यस्त देखा शहर ,
लोहारों की धोंकनी ,
धप-धप कर हांफा करती ,
मोची की रांपी ,
खप-खप करती ,
चर्म-पट्ट पर चहका करती ,
नापित की गर्म अंगुलियाँ ,
खल्वाटों पर आपस में गुंथ ,
खटपट -खटपट कर इठलाती ,
दर्जी का फीता- कैंची-अंगुस्तान ,
सिलाई की मशीन के ,
गर्र-गर्र के श्रुति-कटु नाद में ,
भर्र-भर्र कर नाचा करते ,
पिन्जारे की धुनकी,
धुनक-धुनक कर रुई के फोहे ,
बर्फ के गोले से उडाती ,
ऐसे ही बढई -जुलाहे ,
रंगरेजों और छींपों की ,
कुम्भकार-स्वर्णकार ,
माली-धोबी ,मजदूरों और कारीगर की ,
अपनी-अपनी रचना चलती ,
हर रचना श्रम का गीत रचाती ,
ऐसे ही लघु रचना से ,
भरा-पूरा शहर बसता था .
अब बड़े-बड़े पूंजीपतियों के आगे ,
सब के सब कहीं मर गए ,
धोंकनी -धुनकी , कैंची- रांपी ,
कहीं नहीं दिखाई देती ,
सिक्कों की चकाचोंध में ,
अब शहर सिसकता जाता है.
पर्वों और त्यौहारों में ,
अपनी ही मस्ती में देखा शहर ,
ढोली घर-घर आकर,
ढोल बजाकर त्यौहारी लेते ,
भाटों और चारण अपनी पोथी पढ़-पढ़ ,
वंश-विरुद को गा-गा कर ,
अपना-अपना अधिकार जुटाते ,
वनवासी आकर गेरू दे जाते ,
जिस से घर-घर के आंगन में ,
चित्रित अल्पना और मांडने में ,
जीवन झलकाया करते,
संझा का चित्रण और सेवरा ,
घूमर-घेर ,रास-डांडिया ,
होली-दीपावली-ईद-दशहरा ,
रक्षाबंधन- मकर संक्रांति ,
वैशाखी-नागपंचमी जैसे ,
अनगिन त्योहारों-पर्वों पर ,
हर-घर का आंगन खुल जाता था ,
मीठी गंध नथूनों में आकर ,
बरबस आकर्षित करती थी ,
तब बिखरा हुआ शहर ,
फिर से महाकुम्भ सा ,
एकत्रित हो जाया करता था.
अब अंतरजाल के संबंधों में ही
जीवन उलझ गया है शफरी सा ,
उत्सव-पर्वों और संस्कारों को ,
अब शहर चित्र में देख रहा है.
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.
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