Wednesday, 20 February 2013

अभिव्यक्ति के पर आये हैं


चिड़िया की हुई बगावत है , ज़रा संभल के चल .
कबूतर ने भी पर खोले हैं , ज़रा संभल के चल.

तेरे कलदार चला करते थे , कभी खुले गगन में .
अब तेरी टकसाली बंद हुई , ज़रा संभल के चल .

तेने अपने पंख फैला कर , हरदम डर घोला था.
सब परिंदे उड़ने को आतुर , ज़रा संभल के चल .

काल सरीखे तेरे पंजों ने , तन-मन चीर दिये थे .
चिड़िया ने चोंच उठाई है , ज़रा संभल के चल.

तेरे काले साये से डर कर , जो पेड़ों में छिपते थे,
वे सब मरने को ही चल पड़े , ज़रा संभल के चल .

ठकुरसुहाती करने वाले , ओ काले कौए तू सुन .
अभिव्यक्ति के पर आये हैं , ज़रा संभल के चल .

                                - त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

No comments:

Post a Comment

संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...