चिड़िया की हुई बगावत है , ज़रा संभल के चल .
कबूतर ने भी पर खोले हैं , ज़रा संभल के चल.
तेरे कलदार चला करते थे , कभी खुले गगन में .
अब तेरी टकसाली बंद हुई , ज़रा संभल के चल .
तेने अपने पंख फैला कर , हरदम डर घोला था.
सब परिंदे उड़ने को आतुर , ज़रा संभल के चल .
काल सरीखे तेरे पंजों ने , तन-मन चीर दिये थे .
चिड़िया ने चोंच उठाई है , ज़रा संभल के चल.
तेरे काले साये से डर कर , जो पेड़ों में छिपते थे,
वे सब मरने को ही चल पड़े , ज़रा संभल के चल .
ठकुरसुहाती करने वाले , ओ काले कौए तू सुन .
अभिव्यक्ति के पर आये हैं , ज़रा संभल के चल .
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.
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