Friday 8 February 2013

अंतिम क्षण तक

बहुत दूर से ,
कोई निमंत्रित करता है ,
पर ,
मैं हूँ कि,
लाख प्रयत्नों के ,
बाद भी जा नहीं पाता हूँ ,
मुझे डर है अपनी ही जड़ों से,
कट जाने का 
और,
अपनी जड़ों की ,
मिट्टी को खो देने का.

मैं जिस धरा पर खडा हूँ ,
वह चोकोने कागज़ की तरह ,
रोज बंट रही है,
बंटी हुई धरती के टुकडे 
कागज की पन्नियों की तरह ही ,
इधर से उधर छितर रहे हैं ,
मैं जिस टुकडे पर खडा हूँ ,
वह भी रोज हिलता है ,
शायद एक दिन वह टुकड़ा भी ,
अन्य टुकड़ों की तरह उड़ जाएगा ,
और ,
वह जगह ,
किसी अन्य की होगी ,
तब मेरे हल्के भार पर ,
भारी पेपरवेट हंसेगा.

हर बार पत्र में लिखा होता है -
चले भी आओ ,
आखिर वहां क्या रखा है ?
जो भी तुम वहां रह कर ,
नहीं जुटा सके ,
वह सब का सब तुम्हे ,
अनायास ही यहाँ मिल जाएगा .
....................( ऐसा ही बहुत कुछ )
हर बार मुझे उन पत्रों पर ,
चिढ हो आती है ,
मैं उन्हें अपनी करतली में, 
भींच-भांच कर ,
जोर से धरा पर पटक देता हूँ ,
हाँ , उसी धरा पर ,
जो कागज़ की तरह ही ,
रोज-रोज बंट रही है ,
लेकिन इस बंटती हुई ,
धरती से भी, 
मुझे बेहद लगाव है,
क्योंकि ,
मेरी पहचान इसी ,
बंटती हुई धरती से है ,
और ,
इस पहचान को बनाने में ,
मेरे जीवन का स्पंदन ,
किसी भव्य अनुष्ठान की ,
मंत्र-आहुति में ,
समिधा सा आहूत हुआ है .

मेरे साथ पनपता है ,
कोई महावृक्ष ,
पादप -लता या झाडी भी ,
तो मुक्त हो कर पनपे ,
उस से तो मुझे सदा ही ,
परितोष मिलेगा ,
क्योंकि ,
सब के होने पर ही ,
यह संसार फलीभूत होता है ,
तब इन संस्थितियों में ,
मेरा भी होना ,
अत्यावश्यक सा है .
यही विचार मुझे निरंतर ,
अपनी जड़ की मिट्टी से ,
जोड़ रहा है ,
मेरे जीवन के अर्थ समान ,
इसीलिए मेरा प्रयत्न है -
यहीं खडा रह , यहीं जमा रह ,
अंतिम क्षण तक रोक रखूँ ,
इस धरा को बटने में कागज समान.

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

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