सरोवर में नित्य कंठ सूखे , अब सहा जाता नहीं .
पानी का मर जाना हम को, अब सहा जाता नहीं.
हलक तर करने के लिए ही , हम सरोवर खोदते .
खुले में अधिकारों का मरण ,अब सहा जाता नहीं.
शुष्क होठों पर जीभ फिराये , सांस लेते जा रहे हैं.
पर मछलियों का वो तडफना,अब सहा जाता नहीं.
कल तलक तो हम सोचते , आयेंगे वे पानी लिए.
पर धुंआ उड़ाते लौट आते , अब सहा जाता नहीं.
तड़फती पाई मछलियाँ को , पहले सहलाना है .
फिर दावतें उन की उड़ाना , अब सहा जाता नहीं.
जल रही थी बस्तियां तब , उन को कहाँ देखते.
वो भीड़ में उनका सिसकना ,अब सहा जाता नहीं.
हाथ उनके बढते प्यार से , सहलाने में गाल को .
फिर पेट की तली नापना , अब सहा जाता नहीं.
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.
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