कुछ वहशी हैं , कुछ पागल हैं .
दहशत लाये हैं ,कुछ पागल हैं .
सभी चल दिये , अमन की डगर.
अमन कुतरते वे ,कुछ पागल हैं .
प्यार से गीली हैं , गली हमारी .
नमक बिछाते वे ,कुछ पागल हैं.
मिले हुए दिल ,कटते भी कहीं .
काटने पर तुले , कुछ पागल हैं.
पकी हुई फसल , मुहोबतों की .
रास नहीं जिन्हें , कुछ पागल हैं.
सेकना चाहते ,सियासती गोटी .
वे जलाते बारूद ,कुछ पागल हैं .
जानते ही नहीं , हमारी फितरत .
हम मिट्टी में सने,कुछ पागल हैं.
मिट्टी में जियें हैं , मिट्टी में मरेंगे .
तबियत ही ऐसी , कुछ पागल हैं.
तिरंगे की कसम ,यार अब सुधर.
चिरोरी होगी नहीं, कुछ पागल हैं.
बारूदी धमाके , मार सकते नहीं.
मर-मर के जिए ,कुछ पागल हैं.
मिटाने पर भी ,जो मिटती नहीं .
हस्ती हमारी भी , कुछ पागल हैं.
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द .
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