Sunday 27 January 2013

मैं धरा का पुत्र हूँ धरा पर पला हूँ .


रोशनी सूरज से लिए मैं चला हूँ .
मैं धरा का पुत्र हूँ धरा पर पला हूँ .

छल-छंद सारे ,
जानता हूँ ,
मैं निशा के.
षड्यंत्र सारे ,
जानता हूँ ,
मैं निशा के .

अंधेरों को दफन करता मैं बढ़ा हूँ.
मैं धरा का पुत्र हूँ धरा पर पला हूँ .

छलकते प्याले
जानता हूँ ,
मैं मधु के .
टूटते प्याले ,
जानता हूँ ,
मैं मधु के .

भोर से संध्या तक गंगा में बहा हूँ .
मैं धरा का पुत्र हूँ धरा पर पला हूँ .

प्यार-रिश्ते ,
जानता हूँ ,
मैं मृदा के .
कर्ज-अनुग्रह ,
जानता हूँ ,
मैं मृदा के .

मृदा से संसार अपना गढ़ रहा हूँ .
मैं धरा का पुत्र हूँ धरा पर पला हूँ .


                  - त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Friday 25 January 2013

वो है मेरा प्राण .


मेरा प्यारा देश !
जिस के बिना ,
मेरा अस्तित्व नहीं ,
वह है तो मैं हूँ ,
वो है मेरा प्राण .

स्वर्ण सी भोर ,
रजत सा दिन ,
ताम्र सी सुर्ख संध्या,
जहां
सप्तरंगी संस्कृति ,
षड ऋतु के साथ ,
वहन करते हैं ,
गलबहियों में बंधे ,
आप सी रिश्ते ,
हरित दुर्वा से ,
फलित होते हैं,
ऐसा मेरा  देश,
वो है मेरा प्राण .

राष्ट्र ध्वज
और
राष्ट्र गान ,
मेरे अस्तित्व की पहचान ,
सबका आदर ,
सब का मान ,
सद्चरित्र का गान ,
ऐसा मेरा देश
हिमगिरि से
दक्षिण सागर तक ,
गौरवशाली मरुधरा से,
पूर्वांचल की सरस धरा तक,
अक्षुण्ण  मेरा देश ,
मेरे रोम-रोम में ,
नित स्पंदित ,
वो है मेरा प्राण .

संविधान के निर्देशों पर ,
विकसित गरिमामय गणतंत्र ,
विविध पंथ ,
और उपासना ,
पलते हैं ,
ले मानवता का मन्त्र ,
प्रेम -अहिंसा
और विश्वबंधुत्व
का पाठ पढ़ाता,
मेरा स्वर्ण विहग सा देश ,
मेरी पूजा और भगवन सा,
मेरा भारत देश महान ,
मेरा कतरा-कतरा ,
उसे समर्पित ,
वो है मेरा  प्राण .

                   - त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द .

Saturday 19 January 2013

कल की चिंता में


कल की चिंता में ,
घुल जाता है आज ,
जैसे घुल जाता है ,
पानी में नमक .
जहां तक ,
सवाल है चिंताओं का ,
उस के लिए निवेदन है ,
वे बहुत निर्लज्ज हैं ,
समय के साथ-साथ
बड़ी होती चली जाती हैं ,
जैसे अस्त होते दिन के साथ ,
फैलती चली जाती हैं परछाई.

निर्लज्ज चिंताएं ,
जब फैलती हैं ,
तब ना जाने कब ,
फैला देती है अपनी
विशाल श्यामल भुजाएं,
और
उन निर्मम भुजाओं में ,
सब सिमट कर
बन जाते हैं निराकार ,
जैसे लिखे हुए भोजपत्रों को ,
डुबो दिया हो किसी ने नील में .

दो दिन से राजधानी में ,
लगा है चिंतन-शिविर ,
यह चिंतन आखिर कर ,
चिंताओं का ही है भद्र-रूप,
जहां आज चिंता प्रकट की गई ,
कल के सुन्दर स्वरूप के लिए,
ये " आज " और " कल "
सूरज की ही तो है अभिव्यक्ति ,
जिस के लिए कल मुझे,
कलम पूछने वाली है-
कवि ! तूने क्या कर लिया ,
तटस्थ हो कर भीष्म की तरह .

कवि  से इतनी अपेक्षा क्यों ?
वह भी तो
जीवन-चक्र का हिस्सा है ,
उसे भी "चिंता" सालती है ,
बिक गई है सारी की सारी,
पुश्तैनी जमीन ,
घर टूट कर बिखर गया है ,
बचपन के साक्षी ,
साफ-सुथरे गली-चौराहे  ,
भर गए है,
उत्कोचों और तस्करों से,
हिंस्र भेड़ियों से
बलात्कारियों के इश्तहारों से ,
जहां पर भी " कवि " तो लगा है ,
अपनी कलम को
घिस कर तीखी करने में ,
याद रखें -
उस की "कलम" तो "कलम" है ,
वह नोक रखती है , वह तीखी है ,
परन्तु एक बात साफ है ,
वह नश्तर नहीं है ,
वह धारदार हो कर
काटती है तो सही , जोड़ भी जोडती है .

                 - त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

Tuesday 15 January 2013

रचयिता होता है वह ब्रह्मा होता है.


समतल जमीन पर ,
निश्चिन्त हो कर चलना ,
होता है बहुत मनभावन .
ढलानों पर फिसलने के लिए,
ह्रदय होता है बहुत उतावला .
परन्तु ,
चढ़ाई को देख कर ,
अच्छे-अच्छे योद्धाओं के
पैरों तले जमीन ही ,
खिसक जाती है .
हर परिस्थिति में ,
अनासक्त रहने वाला ,
जो भी होता है बिरला होता है ,
रचयिता होता है वह ब्रह्मा होता है.

पिता है आदर्श रचयिता ,
घर के लिए ,
उनकी अनासक्ति देखी ,
कच्चे-पक्के घर के प्रति ,
खेती-बाड़ी के प्रति ,
ढोर-डंगर के प्रति ,
और
अपनी काया के अंश रूप ,
अपनी ही सन्तति के प्रति ,
जिस को जब-जब जितना देय,
देता है अनासक्त हो कर,
और उस के बाद फिर से
खप जाता है दुनियादारी में,
वह अनासक्त पिता ही ,
स्वर्ग का निर्माता होता है ,
जो भी होता है बिरला होता है ,
रचयिता होता है वह ब्रह्मा होता है.

देखा भवन बनाते ,
कुशल कारीगर को ,
वह अनासक्त  ,
अपने साधन के प्रति  ,
वह अनासक्त  ,
चाँदी जैसी सिक्ता के प्रति,
वह अनासक्त  ,
ईंट और उपल के प्रति,
जिसकी जितनी जहाँ जरूरत ,
उस को ही वह हाथ लगाता ,
फिर अनासक्त भाव से ,
आगे बढ़ जाता ,
वह अनासक्त कारीगर ही ,
देवालय का निर्माता होता है.
जो भी होता है बिरला होता है ,
रचयिता होता है वह ब्रह्मा होता है.

देखा जन-वृन्द में ,
कवि को कलम चलाते ,
वह अनासक्त ,
कलम और पत्रों के प्रति ,
वह अनासक्त ,
शब्दों और बिम्बों  के प्रति,
वह अनासक्त ,
छंदों के बंधन के प्रति
वह अनासक्त ,
वैभव और यश के प्रति ,
वह तटस्थ हो कर रचना करता,
सत्य -संवाहक होकर ,
फिर अनासक्त भाव से ,
जन-वृन्द से जुड़ जाता ,
वह अनासक्त जनकवि ही ,
अमर-काव्य का निर्माता होता है .
जो भी होता है बिरला होता है ,
रचयिता होता है वह ब्रह्मा होता है.

             - त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

Sunday 13 January 2013

संसार और तनाव


संसार तनावों से बना ,
या ,तनाव संसार से बने ,
कहना बहुत मुश्किल है ,
एक बात अनुभव होती है ,
हवा में गंध की तरह ,
संसार और तनाव ,
समानांतर पलते हैं,
ये घटने पर
समानांतर घटते हैं
और बढ़ने पर
समानांतर बढ़ते हैं .

जीवन में तनाव
उतने ही गैरजरूरी हैं,
जितना कि सूनापन  ,
सूनापन !
अन्दर ही अन्दर
चुपचाप मारता है ,
हाँ, चुपचाप दबे पाँव,
मैंने देखा है तनाव का,
वह काल सा भयंकर रूप,
धनुष की प्रत्यंचा पर,
जो बाण के रूप में ,
बढ़ता है सर्राटे के साथ आगे,
बेधता है किसी विहग को,
और ,
एक चीख के साथ ही ,
संसार घट जाता है ,
नहीं चाहिए नहीं चाहिए
मुझे ऐसा विद्रूप तनाव,
जीवन के स्पंदन के विरुद्ध,
पलता है किसी काल-देह सा.

जीवन में तनाव ,
उतने ही जरूरी भी हैं ,
जितना की अपनापन ,
अपनापन !
अन्दर ही अन्दर
करता है सृजन ,
हाँ , चुपचाप दबे पाँव
यह भी देखा है तनाव का
नारायण सा वरद रूप ,
जो सितार के तारों पर ,
पतली-पतली अंगुलियाँ से ,
उभरते हुए देखा है ,
स्वर लहरी के रूप में ,
अनहद नाद की तरह ,
जिसे पा कर ,
बंद पडा जीवन का स्पंदन ,
फिर से स्पंदित हो जाता है,
और ,
एक गान के सह ,
संसार बढ़ जाता है ,
यही चाहिए यही चाहिए,
मुझे ऐसा सरस तनाव ,
जीवन के स्पंदन के पक्ष में ,
पलता है किसी प्राण-देह सा.

                   - त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

Saturday 12 January 2013

टूटन


छोटा और बड़ा ,
सरल और विरल,
सब टूटते हैं
हर तरफ " टूटन " ,
आज की सभ्यता की ,
मानो अनिवार्य शर्त है,
जिस के अभाव में ,
" आज से संदर्भित " ,
होने पर लगते हैं,
कई-कई प्रश्न.

चारो तरफ धरती पर,
कई सारी हैं दरारें,
जिन्हें देखने पर ,
आज के समय का ,
होता है बोध,
कई-कई बार,
यह भी होता है भ्रम,
हम अभी चटक जायेंगे,
भरभरा कर बिखर जायेंगे,
और " टूटन " -
जोर का अट्टहास लगा कर,
अभी उड़ाएगी हमारी खिल्ली .

" आज का और नया "
होने के लिए ,
क्या टूटना जरूरी है ?
क्योंकि  " उन्हें "
कुलीन बनने की,
प्रक्रिया में,
बस टूटते हुए देखा,
और टूटने में,
" वे " किरच-किरच हो कर,
ऐसे बिखरते चले जाते,
जैसे कोई दीवार पर ,
बहुत ऊंचे टंगा शीशा ,
जो टूट कर बिखर गया,
जो अब टूटने के बाद ,
किसी काम का नहीं .

टूटना भी कभी-कभी ,
होता है सार्थक ,
जैसे कि टूटता है पानी ,
पानी ?
हाँ , पानी भी टूटता है,
पर पानी का टूटना ,
शीशे की तरह टूटना नहीं,
(शीशा टूट कर पैरों में गड़ता है,
अपाहिज करता है )
पानी टूटता है जीवन के लिए,
और टूट कर भी ,
बार-बार जुड़ जाता है ,
क्योंकि वह कभी भी ,
किरच-किरच हो कर बंटता नहीं,
जब भी मिलता है अवसर ,
बन जाता है नदी ,
दौड़ पड़ता है सागर की तरफ ,
फिर एक बार टूटने के लिए ,
फिर एक बार जुड़ने के लिए .

               - त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

सहस्त्रशीर्ष का हिस्सा हूँ.

वो पैर ही काटने पर तुले ,
पैर मेरे काटे भी गये .
परन्तु ,
मैंने नवीन पैर उगा लिए ,
हा-हा-हा ,
मैं अब भी चलता हूँ .

कुछ लोगों को ,
मुझ से रही सहानुभूति ,
कुछ ने दिखलाई दया,
पर गीत दर्द का ,
सदा साथ रह ,
मुझ को करता था प्रेरित ,
( अब भी बहुत प्रभावी )
उठा-गिरा और रेंगा भी था,
धीरे-धीरे लंगड़ाता चलता,
आखिरकार हा-हा-हा ,
मैं अब दौड़ पडा हूँ .

नित्य यज्ञ-कुंड,
धू-धू कर जलता रहता,
कर्म-साधना के मन्त्रों से ,
चारों ओर गर्म दहकते ,
अंगारों वाली ज्वाला में ,
चेतनता की लगा आहूति,
अपना हंसिया ओर हथौड़ी,
अपने हाथों हा-हा-हा ,
मैं हाथ तोलता जाता हूँ .

लो देखो-देखो-देखो ,
जी भर कर देखो ,
अब मेरे सहस्त्रपद ,
काट सको तो काटो ,
खुली चुनौती अब मेरी है,
वह बीत गयी सो बात पुरानी ,
तरल-सरल किसी नदी सा,
तुझ को भी अपने में ,
लय करने को आमादा ,
( अब मैं नहीं अकेला )
मैंने तो अपना ,
सिर ही सौंप दिया हा-हा-हा ,
अब मैं सहस्त्रशीर्ष का हिस्सा हूँ.

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Monday 7 January 2013

मुझे तुम्हारी चिंता है


स्वप्न देखना ,
फिर उन्हें यथार्थ में उतारना ,
नहीं है आसान,
कभी धरती पर उतर कर,
फिर से उड़ जाते है,
और कभी-कभी,
ताना-बाना बुनने से पहले ही,
बिखर जाते हैं स्वप्न ,
सूखे घरौंदे की तरह.

मेरे स्वप्नों की दुनिया में,
तुम हो,
बोलने वाले खिलौने की तरह,
मैं हूँ,
खिलौने से बहल जाने वाले,
हठीले बच्चे की तरह ,
और साथ ही चाहत है ,
बहुत सारे खिलौनों की,
जिस से सज जाए,
मेरी छोटी सी दुनिया ,
जिस में ,
नन्ही सी सुकोमल जान ,
जी भर के चहके ,
सद्यःजात चिड़िया के ,
नन्हे चूजे की तरह .

हर स्वप्न को ,
धरातल पर उतारने की,
अथक कोशिश में ,बहुत घायल हूँ ,
मरुस्थल के प्यासे,कुरंग की तरह,
जिस के खुर खिर गये हैं,
सुनहरी त्वचा ,
कड़ी धूप में जुलस गयी है,
आँखें सिक्ता में तप कर ,
पके जामुन सी हो गयी है,
और कंठ ,प्यास के मारे ,
सूख गया है ,
बस दुःख इस बात का है-
अब कहीं कोई कोयल ,
गाती ही नहीं है गीत ,
जो कि बहुत जरूरी है ,
जीवन के स्पंदन के लिए.

इस सब का यह,
मायने नहीं कि ,
मैं हार गया हूँ ,
या ,
विषम परिस्थितियों से,
कोई समझौता करने को ,
तैयार हो गया हूँ ,
बल्कि ,स्वप्नों को ,
धरती पर उतारने को और अधिक,
संकल्पबद्ध हो गया हूँ,
उस जिद्दी बच्चे की तरह ,
इच्छित खिलौना नहीं मिलने पर,
सरे राह ठिठक जाता है ,
या,
भरे बाजार ,
रोते हुए चलती सड़क पर,
लेट जाता है ,
आखिर कर,मुझे तुम्हारी चिंता है,
देना चाहता हूँ ,तुम को एक दुनिया .

            - त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

Tuesday 1 January 2013

शिव-स्वरूप त्रिकाल महाकाल.


अब आ गया है समय ,
अपनी सीमाओं को ,
मुखर हो कर दे दूं ,
एक विशाल विस्तार,
आवश्यक हो गया है ,
मुझे देना ही होगा ,
अपने चारों और फैले,
वृत्त का परिचय,
और ,
लेना होगा समंदर पार,
बैठे मित्रों के ,
वृतों  के परिचय .

मेरे वृत्त में कई सारे,
अनगिनत छोटे-बड़े ,
घूमते हुए हैं वृत्त ,
और ,
वे सब के सब वृत्त ,
श्याम-श्वेत रूप लिए ,
मेरे अस्तित्त्व के लिए,
करते हैं परिचय का काम ,
ये सारे वृत्त ,
मेरे वृत्त में रह कर ,
रूपायित कर चुके हैं ,
चिड़िया के घोंसले की तरह ,
मेरा स्पष्ट त्रिकाल .

त्रिकाल ! हाँ त्रिकाल ,
मेरा-तुम्हार है नियंता,
शिव स्वरूप ,
महाकाल की तरह ,
जो सुसज्जित है ,
वात्सल्यमयी शक्ति की ,
ऊर्जामयी गति से ,
जिस से करते हैं ,
सब की सटीक  ,
जीवन की समालोचना.
मेरे वृत्त और उसमें फैले,
उपवृत्तों  की संरचना भी ,
करते हैं मेरे आराध्य
शिव-स्वरूप त्रिकाल महाकाल.

उसी त्रिकाल की ही ,
अभिव्यक्ति है ,
समंदर के पार ,
बैठे मेरे ज्ञात-अज्ञात ,
मित्रों के वृत्तों की .
मेरी कोशिश होगी ,
मैं कर सकूं स्थापित ,
अलग-अलग वातावरण में,
बने भिन्न-भिन्न वृत्तों में,
कुछ एक रूपता ,
कुछ सम रूपता
और ,
स्ववृत्त की सीमाओं को,
दे सकूं मानवीय विस्तार,
आखिर कर ,
सब वृत्तों का है नियंता -
शिव-स्वरूप त्रिकाल महाकाल.

                   - त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

गुलाब और अबोधता


मेरे पास है गुलाब ,
जिस में है,
तुम सी ही नजाकत ,
तुम सा ही रंग ,
और ,
तुम सा ही पवित्र रूप ,
गुलाब धीमे-धीमे ,
धड़कता है ,
इस के  स्पंदन में ,
तुम सी ही गति ,
और ,
तुम सा ही है लय ,
होता है अनुभव .
कभी- कभी ,
इस समानता से ,
संशय  हो जाता है ,
गुलाब से तुम हो ,
या,
तुम सा है गुलाब .

गुलाब लिए हुए है ,
अन्दर एक विस्तार ,
और,
वही गुलाब लिए हुए है ,
बाहर भी एक विस्तार ,
और मैं ?
अन्दर और बाहर ,
दौड़ता रहता हूँ ,
विचलित होकर ,
उस गुलाब को ,
अपने में समेटने के लिए ,
किसी अबोध की तरह ,
जो लेना चाहता है ,
गुडिया के नर्म-नर्म ,
सूर्ख रसीले लाल-पीले बाल.

मैं चाहताहूं अबोध रहना ,
क्योंकि -
समझदारी में बहुत खतरे हैं ,
और जहां तक ,
सवाल है गुलाब का ,
वह तो हमेशा ही ,
अबोध का ही है विषय .
समझदारी में ,
यह कोई विषय ही नहीं है ,
और ,
बना भी दिया जाये विषय ,
तो समझदारी में ,
यह फालतू का है विषय .
गुलाब और अबोधता ,
का है अपना एक रिश्ता ,
और इन दोनों के मध्य ,
कहीं झूलती है जिंदगी ,
इसीलिए तो मुझे ,
ये दोनों ही है बेहद पसंद.

                   - त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

नूतन वर्ष .


स्वागत-स्वागत
नूतन वर्ष .

रोग -शोक से
रिक्त रहें सब
प्रथम किरण के
प्रथम दिवस से
पूरो घर-घर हर्ष.

सब की चर्या ,
रहे सुरक्षित
नव-नव दिवस
नवल उल्लास
पायें सब उत्कर्ष.

करुणा-धारा
बहे निरंतर
झर-झर- झरे
नेह की धार
हम बनें जयी
करें देश पर दर्प .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...