जीवन तो दुर्वा का
वह जीती है प्रतिपल जीवन
धीरे-धीरे प्रसरण करती
दिशा-दिशा में
अपनी क्षीण झड़ें रोपकर
धवल पताका लहराती।
वह जीती है प्रतिपल जीवन
धीरे-धीरे प्रसरण करती
दिशा-दिशा में
अपनी क्षीण झड़ें रोपकर
धवल पताका लहराती।
देखा दुर्वा उखड़-उखड़
फिर-फिर उग आती
देखा दुर्वा रुँद-रुँद
फिर-फिर हरियाती
धूप, हवा, पानी आकाश और बर्फबारी
दुर्वा की जिजीविषा के आगे हारे।
फिर-फिर उग आती
देखा दुर्वा रुँद-रुँद
फिर-फिर हरियाती
धूप, हवा, पानी आकाश और बर्फबारी
दुर्वा की जिजीविषा के आगे हारे।
कोमल नर्म सौंधी मिट्टी से जुड़
दुर्वा अपनी नन्ही पत्ती से
विजय पताका लहरा जग को कहती-
देखो मैं जीती हूँ,
अस्तित्व के लिए युग-युग से
धूप, हवा, पानी, आकाश और बर्फबारी
के खिलाफ लड़ती हूँ ।
दुर्वा अपनी नन्ही पत्ती से
विजय पताका लहरा जग को कहती-
देखो मैं जीती हूँ,
अस्तित्व के लिए युग-युग से
धूप, हवा, पानी, आकाश और बर्फबारी
के खिलाफ लड़ती हूँ ।
मैंने जीना सीखा
नहीं जानती मैं मरना
इसीलिए जीवन की जद्दोजहद के लिए
लड़ती-मरती और फिर-फिर जीती
जीवन के प्रति निष्ठा मेरी यशगाथा ।
नहीं जानती मैं मरना
इसीलिए जीवन की जद्दोजहद के लिए
लड़ती-मरती और फिर-फिर जीती
जीवन के प्रति निष्ठा मेरी यशगाथा ।
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद।
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