Thursday, 1 March 2012

रावण तनय सर्व , श्रेष्ठतम सुभट हैं,
                 वर  वीर  इन्द्रजीत , दर्शनीय वीर है .
दशानन सहोदर , एक-एक  वर वीर ,
                 भीमकाय कुम्भकर्ण , भयंकर वीर है.
पार्षद व सभासद , दूर द्रष्टा नीतिज्ञ हैं,
                 श्रद्धाबुद्धि  विभीषण , बुद्धिमंत वीर हैं.
 दशानन रणधीर , सुदक्ष राज-कार्य में ,
                  हठबुद्धि  पविकर्ण , अहंकारी  वीर  है.


अतुलित संपदा का , स्वामी दशग्रीव जाना ,
                   प्रभु ! आप  सम  वह , सतोगुणी  नहीं  है.
वर वीर युक्त वह , सुवाहिनी संजोता है,
                  प्रभु ! लोकवाहिनी सी , वाहिनी ही नहीं है. 
इन्द्रजीत - कुम्भकर्ण , भयंकर निशाचर ,
                  प्रभु ! भ्राता - सुग्रीव  से , हितकारी नहीं है.
जपी - तपी वीर वह , दक्ष रणधीर वह ,
                   प्रभु !  सीतापति सम , अधिकारी  नहीं  है.


प्रभु ! नम्र निवेदन , आंजनेय का सुनिए ,
                        लोकवाहिनी को अब , मुक्त कर  दीजिए.
कगारों के मध्य बंधी , नदी सम वाहिनी है ,
                         उमड़ - गुमड  रही , फैल  जाने  दीजिए .
आप लोकनायक हैं , लोक आप ही के साथ ,
                         अग्रसर  हो  कर  के , दिशा  अब  दीजिए .
हर - हर कर  जैसे , नदी लील जाती सब ,
                         रावण से शोषकों को , लील जाने दीजिए.      

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