Saturday, 9 March 2013

ब्रह्म-राक्षस

उस की अपनी ऐंठन है ,
उस ऐंठ में ही ,
ढो रहा है कई सारी गांठे ,
उन गांठों में फँस गया है ,
फंसा-फंसा ही चिल्लाता है ,
ब्रह्म-राक्षस सभ्यों के मध्य .

ब्रह्म-राक्षस चीखता है ,
अपनी भयावह डकारों से,
सारा वातावरण कर देता है कसेला ,
अपनी समस्त चेतना को ,
लगाए रखता है ,
हर उस व्यक्ति को चबा जाने में ,
जिसने भी काटा है रास्ता ,
उस के बरगद के नीचे से .

सभ्य डरते हैं ,
उस के अदृश्य व्यक्तित्त्व से ,
उस की हिंस्र अभिवृत्तियों से ,
उस की तुच्छ प्रवृत्तियों से ,
उसकी गंदली विचारधार से,
तिस पर वह ब्रह्म-राक्षस जो है ,
हाँ , वह ब्रह्म-राक्षस ,
पैदा हुआ है ,
किसी त्रस्त आत्मा के शाप से ,
जिस के कारण ,
भटकता है वह शापित ब्रह्म-राक्षस ,
उस के ही अपने अन्दर ,
अपने ही अहम् के जंगल में .

यह और भी बुरा हुआ ,
उसे बोध हो गया है कि
वह है ब्रह्म-राक्षस ,
जिस का तोड़ नहीं है किसी के पास,
क्योंकि वह अच्छे से जानता है ,
सभ्य नहीं जानते ,
शाबर मारण-उच्चाटन मन्त्र ,
रक्षा या कीलक मन्त्र ,
इसीलिए तो वह ,
भयंकर अट्टहास कर ,
स्वच्छंद होता चला जा रहा है ,
हाँ एक बात है ,
सभ्यों का मोक्ष तो निश्चित है ,
पर ब्रह्म-राक्षस ,
जन्म-जन्मान्तर ,
अपनी ऐंठन की गांठों में ही ,
संत्रास भोगता रहेगा ,
बेचारा....... " ब्रह्म-राक्षस " ,
उस के प्रति मेरी सहानुभूति है,
बेचारा............................

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

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