Saturday, 16 March 2013

डुगडुगी कब से बजी है

डुगडुगी कब से बजी है , जोर की बाजी जमी है
तमाशबिन भी आ गये , भीड़ बढ़ती जा रही है

इक जमूरा सामने आ , बाजीगरी से टकरा रहा
कश्मकश के माहोल में , सांस थमती जा रही है

खाली कटोरा उठ गया , खाली ही पलटा गया है
फिर कई जो गुल खिले , ताली बजती जा रही है

बालिस्त भर का जमूरा , अब जमीं पर सो गया
दो टूक देखा बाजीगरी में ,आँख बहती जा रही है

एक सन्नाटा पसर कर , भीड़ को है जड़ कर रहा
छटपटाता देखा जमूरा , भीड़ सुबकती जा रही है

भावना की बाजियों में , आदमी की चालें खुली हैं
बाजीगरों की साजिशों में , भीड़ फंसती जा रही है

पहले तो गुल का खिलाना , फिर जमूरा काटना
हमदर्दी से बाजीगरों की , जेब भरती जा रही है

ये डुगडुगी ये बाजीगिरी , रोज की सौदागिरी भी
बीच चौराहे पर ही चलेगी , भीड़ जुटती जा रही है

ले ने को तो सौदा गये थे , हाथ खाली लौट आये
क्या करे ये ग़ालिब बिचारे , जेब कटती जा रही है

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

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