Tuesday, 26 March 2013

फागुन के दोहे .




कंत  गये  परदेश में , धण  छूटी इस देश.
टेसू  फूले  दहक  के ,   फागुन  दहके गेह .

कब जाऊं मैं देश में , कब  देखूं घर - बार .
देह दहकती ज्वाल सी ,ये फागुन की मार.

मांड रही वो मांडने , रुचिकर औ बहु भांत .
आँगन तब सजता नहीं , बहे ले अश्रु-धार .

कंत सरीखा  कौन है , इस  फागुन के माह.
कंत सरीखा  कंत है , सुन  फागुन के माह.

आकर्षण में आ मिले ,इस फागुन के माह .
अब कैसे होए विलग , नयन हुए अब चार .

धण को धन ना चाहिए ,ना महल नहीं राज .
तू अटका परदेश में ,किस कामण के काज.

हे प्रिय ! मन की चाह में , ऐसो करे न काज .
तुम पे  रंग श्यामल चढ़े , मैं मर जाऊं लाज .

मैं  प्राण  कीर  को सुनूं , वो  गाये  तव नाम .
उड़ने  को  आतुर  हुआ ,  कैसे  रहूँ  रे   राम .

सावन तो सूखा गया , फागुन फुर-फुर जाय .
बालम तू विमुख रहा , यौवन झर-झर जाय .

देवर  रंग  ले  आ  गये ,  बहुरि  करे  श्रृंगार .
समझा  भी  घर है  नहीं ,फागुन  मारे  मार .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

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