कंत गये परदेश में , धण छूटी इस देश.
टेसू फूले दहक के , फागुन दहके गेह .
कब जाऊं मैं देश में , कब देखूं घर - बार .
देह दहकती ज्वाल सी ,ये फागुन की मार.
मांड रही वो मांडने , रुचिकर औ बहु भांत .
आँगन तब सजता नहीं , बहे ले अश्रु-धार .
कंत सरीखा कौन है , इस फागुन के माह.
कंत सरीखा कंत है , सुन फागुन के माह.
आकर्षण में आ मिले ,इस फागुन के माह .
अब कैसे होए विलग , नयन हुए अब चार .
धण को धन ना चाहिए ,ना महल नहीं राज .
तू अटका परदेश में ,किस कामण के काज.
हे प्रिय ! मन की चाह में , ऐसो करे न काज .
तुम पे रंग श्यामल चढ़े , मैं मर जाऊं लाज .
मैं प्राण कीर को सुनूं , वो गाये तव नाम .
उड़ने को आतुर हुआ , कैसे रहूँ रे राम .
सावन तो सूखा गया , फागुन फुर-फुर जाय .
बालम तू विमुख रहा , यौवन झर-झर जाय .
देवर रंग ले आ गये , बहुरि करे श्रृंगार .
समझा भी घर है नहीं ,फागुन मारे मार .
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.
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