जब भी तेरे ख़त आते हैं , ख़त में हम ही तो होते हैं
ख़त में मेरी सेहत ले के , बस चिंता के क्षण होते हैं
कागज़ के पुर्जे स्याही में , दौलत के वे गढ़ होते हैं
भीनी गंध लिए आते ये , ख़त रिश्तों के पथ होते हैं
निर्जन औ अँधेरे घर में , ख़त आये दीपक होते हैं
उत्सव पर्वों पे आते-जाते , सच में वे ही घर होते हैं
मैंने सब को कह डाला है , ख़त सारे निर्दय होते हैं
ख़त होते श्वांसो के जैसे , रुक जाये तो डर होते हैं
जब से जा के शहर बसे , ख़त मिलने दुर्भर होते हैं
बंटवारे जैसी चुभती बातें ,नस्तर जैसे स्वर होते हैं
कल ही तो चाचा जी बोले , ख़त बिना सूने होते हैं
दीवारें छाती चढ़ आती , ख़त अपने वारिस होते हैं
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.
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