Saturday, 16 March 2013

कविताओं के विद्रोही स्वर


यदि कितना अच्छा होता ,
तुम मेरे दिल की ,
उन तमाम बातों को जान जाते ,
जिन्हें मैं व्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ .
जो कि अन्दर ही अन्दर ,
इस तरह उमड़-घुमड़ रही होती है ,
जैसे कोई चक्रवात ,
हाँ उसी चक्रवात की प्रतिक्रिया में ,
मेरी कविता को समझें  .

जिंदगी कहाँ होती आसान ,
कई उतार-चढाव से ,
भरा हुआ है उस का विरल सफर ,
जिस में उतरते-चढ़ते लोग ,
हांफते मिलते हैं ,
लगता है -
कभी किसी बीच चढ़ाई में ,
अब दम निकला कि अब दम निकला,
बस ऊपर चढ़ते जाते हैं,
प्राणवायु की आकांक्षा में बेचारे.

कन्धों पर आरूढ़ ,
घर-परिवार का बोझा भी ,
चिपका हुआ है ,
किसी बैताल की तरह
हाँ , यही बोझ ढोते-ढोते ,
पहुँच जाते हैं यहाँ-वहां ,
जिस से और भी कसैली ,
हो जाती है जिजीविषा,
पर इसी कसैले जीवन से ही ,
कुछ अमृत बूंदों की संभावनाओं में ,
सब सहते हैं ,
जो सहना भी नहीं होता आसान .

तब उसी की प्रतिक्रिया में उपजे ,
कविताओं के विद्रोही स्वर ,
उसी कसैले जीवन में ,
मर्म भेदती वीणा के स्वर से  ,
स्वर भर देते हैं ,
इस स्वर-संजीवन के प्रभाव से ,
फिर मृत संसार खडा हो जाता ,
एक हल्का सुरभित ,
प्राणवायु का झोंका फहरा जाता है ,
ले जीवन का केतन ,
जीवन की नयी फसल ,
फिर लहरा जाती ,
जैसे फागुन में हो जाती है ,
नवसंवत्सर की तैयारी.

               - त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

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