कोलाहल के मध्य में , कपि श्री गरजते हैं ,
स्वामी!आप का कथन,हितकर नहीं है.
विद्रोह -विरोध सदा , नहीं कुचले जाते हैं ,
अरिवृद्धि नृप करे , यशस्कर नहीं है.
साम दाम राम हेतु , स्वामी ! व्यर्थ सिद्ध होंगे ,
श्री राम को न मानना, अर्थकर नहीं है.
ब्रह्मा हरि हर प्रभु , राम से इतर नहिं ,
इन में भेद करना , श्रेयष्कर नहीं है.
कपि श्री के बोलते ही , नीरवता ही छा गई ,
रक्ष-वृन्द स्तब्ध हुआ,गाज जैसे गिरती.
कहते हैं रावण को , मिला यह अवसर,
व्यर्थ नहिं करें आप , प्राण-धार मिलती.
प्रकृति स्वरूपा सीता , हर कर लाये आप,
पञ्च तत्त्व क्रुद्ध रहे , लंका खूब हिलती .
श्री राम की शरण लें , सीता सौंप क्षमा मांगे ,
लंका को सुशासन दें , यही राह बचती .
झुंझला कर लंकेश , कहता है वानर को,
जानता हूँ श्रेय मेरा , जानता हूँ नीति को .
शासन और सत्ता की , वल्गा थामे रखता हूँ ,
चाहूँ जैसे चलते हैं , जानता हूँ रीति को .
सीता राम कौन होते ? हर आगे सब तुच्छ,
पूर्व में ही कह चुका , हर प्रति प्रीति को.
मम शासन सत्ता को , मूल्य भ्रष्ट खूब कहा,
दारुण दंड पा कर , पाओ अति भीति को.
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