कंकण प्रदान कर , कहने लगी जानकी,
वत्स स्वामी से कहना , सीता मरी जाती है.
जैसे कर सिक्ता धरी , धीरे से खिसकती है ,
वैसी ही है प्राण - दशा , अब श्वाँस जाती है.
अब न विलम्ब करो , तन जर्जर हुआ ,
पक्ष सब विलग हैं , हंसी उड़ी जाती है .
आशा के ही बल पर , प्रतिदिन लड़ती हूँ ,
निगोड़ी ये मृत्यु मुझे , खींचे चली जाती है.
राघव से दूर हो के , रोमावली त्रास भरा ,
वत्स स्वामी से कहना , सीता मरी जाती है.
जैसे कर सिक्ता धरी , धीरे से खिसकती है ,
वैसी ही है प्राण - दशा , अब श्वाँस जाती है.
अब न विलम्ब करो , तन जर्जर हुआ ,
पक्ष सब विलग हैं , हंसी उड़ी जाती है .
आशा के ही बल पर , प्रतिदिन लड़ती हूँ ,
निगोड़ी ये मृत्यु मुझे , खींचे चली जाती है.
राघव से दूर हो के , रोमावली त्रास भरा ,
जल से विलग हुई , मीन सम जीती हूँ.
दृष्टि मात्र राम को ही , खोजती ही रहती है ,
मरुस्थल में बावरी , मृगी सम जीती हूँ.
राम से बिछुड़ कर , मिली मानो रजनी ,
राम -राम रटती , चकोरी सम जीती हूँ .
अविलम्ब राम देखूं , इसी आस जीती हूँ .
वत्स प्रिय को बताना , सीता सम धरा त्रस्त ,
सीता सह धरा के भी , उद्धार को आइये.
शोषण - दुराचरण , प्रसरित है लंका से ,
विश्व अति शोषित है ,शमन को आइये.
अस्त्र-शस्त्र रचना से , आतंकित विश्व है,
भयभीत प्रकृति की , मुक्ति हेतु आइये .
राजीव नयन पर , विश्व दृष्टि साधता है,
मूल्य युक्त जीवन के , सृजन को आइये.
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