Sunday 22 January 2012

वानर सन्देश ले के , कहता विनत हो के ,
                  सुनो  महतारी  आप , प्रकृति  स्वरूपा हैं .
राम सह लोक खड़ा , मुक्ति को वो चाहता,
                  सीता मात्र नारी नहीं ,सीता मुक्ति रूपा हैं.
शोषण-दमन और , दुराचरण-ध्वंश में,
                  विश्व वंदनीया सीता , शुचि शक्ति  रूपा हैं.
आप के उद्धार सह , लोक का उद्धार तय ,
                  अब आज्ञा चाहता हूँ , आप  धृति  रूपा हैं.


सजल वो नेत्र लिये , वानर को कहती है ,
                  समझ में आता नहीं , स्वजन क्यों जाता है?
गमन उचित वत्स , मुझ को प्रतीक्षा होगी,
                  कहते  ही  जानकी  का ,कंठ  रुक  जाता है. 
वानर ने अब देखा , सीता वर मुद्रा लिये ,
                  विनत  वो  होकर  के , श्रृंग  चढ़  जाता है.
घोर गर्जन कर , नभचारी होता है ,
                  मानो  सुतपि  के   प्राण , नभ चढ़ा जाता है.  
     

No comments:

Post a Comment

संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...