दाह की प्रचंडता में , फंसे हुए निशाचर ,
बगलें ही झाँक कर , सित्कारी वो भरते .जातुधान रमणियाँ , रावण को कोसती हैं ,
कपि अरि सदन देख , चिंगारी को भरते .
अस्त्र-शस्त्र शाला मानी , विश्व हेतु विध्वंसक ,
भस्मीभूत कर कपि , किलकारी करते .
मधुशाला - वधशाला , लज्जा के ही हेतु मान ,
छिन्न-भिन्न कर कपि , हुंकारी को करते .
जुलस-जुलस कर , दुर्ग खेह होता जाता ,
ज्वाल का प्रचंड रूप , नभ चला जाता है.
गजशाला - अश्वशाला , रिक्त सब होती जाती ,
अघ घट अब मानो , फूटा चला जाता है.
महाकाय हनुमान , चढ़ बैठे श्रृंग पर ,
दश दिशा चंड ज्वाल , बढ़ा चला जाता है.
वारिधि में कूद कर , जल मथ डाला सारा ,
मानो ताप सरिता में , डूबा चला जाता है.
मानो ताप सरिता में , डूबा चला जाता है.
मन जब स्वस्थ हुआ , निकले वो वारिधि से ,
ज्यों वारिधि मंथन से , सुधा घट निकला.
तट से निकल कर , वन ओर बढ़ चले,
मानो घन - मंडल में , सुधाकर बढ़ता.
जानकी से मिलते हैं , सहिदानी माँगते हैं,
बोलो आप महतारी , प्रभु से क्या कहना?
वानर को वात्सल्य से , कंज नेत्री कहती है,
राम शीघ्र आयें ऐसी , दीन दशा कहना.
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