Monday, 16 January 2012

दाह की प्रचंडता में , फंसे  हुए निशाचर ,
                    बगलें ही  झाँक कर , सित्कारी वो   भरते .
जातुधान रमणियाँ , रावण को कोसती हैं ,
                    कपि अरि सदन देख , चिंगारी को भरते .
अस्त्र-शस्त्र शाला मानी , विश्व हेतु विध्वंसक  ,
                    भस्मीभूत  कर  कपि , किलकारी  करते .
मधुशाला - वधशाला , लज्जा के ही हेतु मान ,
                    छिन्न-भिन्न कर कपि , हुंकारी को करते .


जुलस-जुलस कर , दुर्ग खेह होता जाता ,
                    ज्वाल का प्रचंड रूप , नभ चला जाता है.
गजशाला - अश्वशाला ,  रिक्त सब होती जाती ,
                    अघ घट अब मानो , फूटा चला जाता है.
महाकाय हनुमान , चढ़ बैठे  श्रृंग पर ,
                    दश दिशा चंड ज्वाल , बढ़ा चला जाता है.
वारिधि में कूद कर , जल मथ डाला सारा ,
                    मानो ताप सरिता में , डूबा चला जाता है.


मन जब स्वस्थ हुआ , निकले वो वारिधि से ,
                    ज्यों वारिधि मंथन से , सुधा घट निकला.
तट से निकल कर , वन ओर बढ़ चले,
                     मानो  घन - मंडल  में , सुधाकर  बढ़ता.
जानकी से मिलते हैं , सहिदानी माँगते हैं,
                     बोलो आप महतारी , प्रभु से क्या कहना?
वानर को वात्सल्य से , कंज नेत्री कहती है,
                      राम शीघ्र आयें ऐसी , दीन दशा कहना.            

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