गहन निशा में राम , गगन निहारते हैं ,
टिमटिमाते नक्षत्र , उनको चिढाते हैं .
तिर्यक मयंक देख , वाम भुज देखते हैं ,
रिक्त उसे पा कर के , आह भर जाते हैं .
आह सुनता अनुज , उठ कर बैठ जाए ,
अनुज से राम कहे , कपि नहीं आये हैं.
नित भू भ्रमण करे , आते-जाते रवि-चन्द्र ,
पर सखा सुसंदेश , काहे नहीं आते हैं ?
निर्मल चन्द्र ज्योत्सना , छाई हुई चहुँ ओर ,
मानो धरा मढ़ दी हो , स्वर्ण पत्र आभ से.
शुचि जल श्रोत बह , झर-झर नाद करे ,
मानो वीणा वादन का , प्रेम भरा राग है .
मंद-मंद वायु बहे , पत्र ताल देते जाते ,
शाखा झूम जाती मानो , रस पगा नाच है.
राम यह देख कर , अनुज से कहते हैं ,
सीता किस हाल होगी ? यही अनुताप है.
राघव को खिन्न देख , कहते हैं लक्ष्मण भी ,
कपिराज सुग्रीव को , निश्चिन्त ही मानिए.
हनुमान भेज कर , सौर तान सो गये हैं ,
हम हुए विस्मृत हैं , कृतघ्न ही मानिए.
राज-पाट लेने हेतु , मित्र-रूप धर आये ,
राज - पाट ले कर के , विमुख ही मानिए .
प्रभु का आदेश हो तो , झंकृत करूं प्रत्यंचा ,
तात ! तब सुग्रीव को , सक्रिय ही मानिए .
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