Sunday, 15 January 2012

चिन्तते हैं कपि श्री भी , कैसा रक्ष समाज है ?
                    यन्त्र सम चल पड़ा ,बिना ही  विवेकके .
बुद्धि कहीं बेच दी है , मन कहीं मार दिया ,
                     हो गये हैं सहयोगी  , मूल्यों के पतन में .
अंध राजा श्रुति हीन , वैसी ही प्रजा भी है ,
                     शीघ्र दोनों हव्य होंगे , काल के ही यज्ञ में.
प्रभु कार्य सिद्धि हेतु , लौटना जरूरी होगा ,
                     चलो अब लग जाऊँ , पुच्छ के विकास में .


कपि ध्यान साध कर , सर्पिणी जगाते तत्र ,
                     प्राण ऊर्ध्व मुख हो के , गरिमा वो पाते हैं .
देखा जब वानर को , भीमकाय हो रहां है ,
                     जातुधान  कपि - रूप , देख  भय  खाते हैं.
सर्र-सर्र कर पुच्छ , शेषनाग सम होती ,
                     घृत - तेल  वस्त्र  अल्प , होते चले जाते हैं .
कपि अब देखते हैं , निशाचर श्रम मग्न ,
                     हाय - हाय करते वे , पुच्छ थामे जाते हैं.


कपि ठेल-ठेल कर , नगर घुमाया जाता ,
                     चौराहे पर रुद्ध कर , हास वो रचाते हैं .
निशाचर ढोल पीट , मृदंग को थाप मार , 
                     जातुधान अंगनायें , संग में नचाते हैं .
कोई पदाघात करे , मुष्टिका भी मार जाए ,
                     बाल वृन्द भ्रष्ट भाषी , उधम मचाते हैं .
लंक - दुर्ग मध्य आ के , पुच्छ -दाह करते हैं ,
                     तभी कपि लघिमा ले,पुच्छ को बचाते हैं .    

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