दीवारों से जो गिरा हुआ हूँ ,
मुक्ति की बस चाह रखी है ,
हाथ लगाकर दीवारों को ,
सहलाया ,
धीरे-धीरे ही सही पर ,
रेत हुई वह ढहती है .
इधर दीवारें - उधर दीवारें ,
घने तमस में निराकार हैं ,
सिकुडन व एकाकीपन को ,
बतलाया ,
धीरे-धीरे ही सही पर ,
इक चिंगारी जलती है .
भारी भरकम लगी बेड़ियाँ ,
खन-खन करती हैं झंझीरें ,
बंधन में जो लिए ऐंठ है ,
टकराया ,
धीरे-धीरे ही सही पर ,
स्वर विद्रोही भरती है.
घायल तन और मन घायल,
सहलाती अंगुलियाँ घायल,
दर्द दमन जब रूपायित कर ,
दिखलाया ,
धीरे-धीरे ही सही पर ,
नदी आग ले बहती है.
कहाँ दिवस और कहाँ रात है ,
तेरे ही कहने से पता चला है ,
मुक्ति का गायन श्वासें करती ,
समझाया ,
धीरे-धीरे ही सही पर ,
कुछ मशालें दहती हैं .
मुक्ति की बस चाह रखी है ,
हाथ लगाकर दीवारों को ,
सहलाया ,
धीरे-धीरे ही सही पर ,
रेत हुई वह ढहती है .
इधर दीवारें - उधर दीवारें ,
घने तमस में निराकार हैं ,
सिकुडन व एकाकीपन को ,
बतलाया ,
धीरे-धीरे ही सही पर ,
इक चिंगारी जलती है .
भारी भरकम लगी बेड़ियाँ ,
खन-खन करती हैं झंझीरें ,
बंधन में जो लिए ऐंठ है ,
टकराया ,
धीरे-धीरे ही सही पर ,
स्वर विद्रोही भरती है.
घायल तन और मन घायल,
सहलाती अंगुलियाँ घायल,
दर्द दमन जब रूपायित कर ,
दिखलाया ,
धीरे-धीरे ही सही पर ,
नदी आग ले बहती है.
कहाँ दिवस और कहाँ रात है ,
तेरे ही कहने से पता चला है ,
मुक्ति का गायन श्वासें करती ,
समझाया ,
धीरे-धीरे ही सही पर ,
कुछ मशालें दहती हैं .
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