Thursday, 20 September 2012

कुछ मशालें दहती हैं .

दीवारों से जो गिरा हुआ हूँ ,
मुक्ति की बस चाह रखी है ,
हाथ लगाकर दीवारों को ,
         सहलाया ,
   धीरे-धीरे ही सही पर ,
   रेत हुई वह ढहती है .

इधर दीवारें - उधर दीवारें ,
घने तमस में निराकार हैं ,
सिकुडन व एकाकीपन को ,
         बतलाया ,
   धीरे-धीरे ही सही पर ,
   इक चिंगारी जलती है .

भारी भरकम लगी बेड़ियाँ ,
खन-खन करती हैं झंझीरें ,
बंधन में जो लिए ऐंठ है ,
         टकराया ,
   धीरे-धीरे ही सही पर ,
   स्वर विद्रोही भरती है.

घायल तन और मन घायल,
सहलाती अंगुलियाँ घायल,
दर्द दमन जब रूपायित कर ,
         दिखलाया ,
   धीरे-धीरे ही सही पर ,
   नदी आग ले बहती है.

कहाँ दिवस और कहाँ रात है ,
तेरे ही कहने से पता चला है ,
मुक्ति का गायन श्वासें करती ,
         समझाया ,
   धीरे-धीरे ही सही पर ,
   कुछ मशालें दहती हैं .



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