Tuesday, 27 September 2011

उनकी जीभ बहुत नरम है.

जिन की जेब बहुत गरम है,
उनकी जीभ बहुत नरम है.
मुड़ जाती आराम से .

कई योजनाएँ आती हैं,
कई बैठकें होती हैं,
अन्वेषण चलते जाते ,
और रपट सामनें आती हैं ,

प्रेम-पगे तब आते निमंत्रण,
हम भी पहुंचते शान से ,
पहले चढ़ाते हैं झाड़ पर ,
फिर गिराते धड़ाम से,
जैसे मछेरा डाले चारा,
फांसे मछली आराम से.
जिन की जेब बहुत गरम है,
उनकी जीभ बहुत नरम है.
मुड़ जाती आराम से .


सबसे पहले यही कहेंगे,
मिलकर सम्प्रेषण करेंगे,
वे  मीन- मेख निकालेंगें,
हम बोलेंगे तो चुप कर देंगें ,

बच्चों में गुणवत्ता कम है.
बेढंगा पूरा शिक्षण है.
बेशर्मी  है बहुत चरम पर ,
जीवन-कौशल का नहीं चलन है  ,

कमियों की सूची लम्बी होगी  ,
साथ नसीहत  भारी होगी  ,
बीच-बीच में फटकारें होंगी,
उद्वेलन पर बातें प्यारी होगी ,
जैसे व्यापारी बातों में ,
बेचान करे आराम से.

जिन की जेब बहुत गरम है,
उनकी जीभ बहुत नरम है.
मुड़ जाती आराम से .











Monday, 26 September 2011

आस्थाएं ढल गयी ,रास्ते बदल गए.




आस्थाएं ढल गयी ,रास्ते  बदल  गए.
सब्ज बाग़ देखने के वास्ते मचल गए.

दोड़ती है जिंदगी ,
हांफती है जिंदगी ,
देखर यूँ कफन ,
माँगती है जिंदगी ,

जल रही है जमीं 
जल रहा है आसमाँ ,
जंगलों के बीच-बीच,
खो गया है रास्ता.


चाँद के हिले-हिले ,बिम्ब से बहल गए.
सब्ज बाग़ देखने के, वास्ते मचल गए.

घोर अन्धेरी रात में,
साथ है छुटा - छुटा,
भोर अभी तो दूर-दूर ,
राह है भुला - भुला ,

छेद हैं बड़े-बड़े,
नाव के तले-तले,
हाथ हैं कटे-कटे,
चप्पू हैं जले-जले,

पानी के जमे-जमे, रूप से बहल गए,
आस्थाएं ढल गयी ,रास्ते  बदल  गए.

हर हरा के चढ़ रही,
काल सी ये बदलियाँ ,
भर भरा के गिर रही,
व्याल सी ये बिजलियाँ,

देखता हूँ में जिधर ,
आग ही आग है,
आस पास में खड़े ,
नाग है नाग है,

रेत के उठे - उठे ,ढेर से  बहल   गए.
आस्थाएं ढल गयी ,रास्ते  बदल  गए

लहर-लहर पर उतर ,
नाव को भी थामते,
अंगुली पिरो - पिरो,
छेद को भी थामते ,

आफतों को डाँटते ,
बढ़ रहें  हैं रास्ते,
जी रहें हैं दोस्तों ,
देश ही के वास्ते,

पलाश के खिले-खिले ,पेड़ से बहल गए.
आस्थाएं ढल गयी ,रास्ते    बदल   गए. 
  

Friday, 23 September 2011

ऊँट के मुँह में जीरा होगा.

बत्तीस रुपैया में क्या  होगा ,
ऊँट के मुँह में जीरा होगा.

तुमको कोक -पेप्सी चाहिए,
और चाहिए पीजा- केक,
लंच-डीनर-ब्रेक फास्ट में,
नित नयी हों चीज अनेक. ,
धरती पर अधनंगे फिरते,
क्या उनको भूख नहीं लगती?
जिनके होंठ सूख गए हैं ,
क्या उनको प्यास नहीं लगती?

उनको सूखा कोर बहुत है,
तुम को प्यारा सीरा होगा.

बत्तीस रुपैया में क्या  होगा ,
ऊँट के मुँह में जीरा होगा.

वातानुकूलित गाडी रखते हो,
पञ्च-सितारा में पलते हो ,
सर्दी-गर्मी से छिपते हो,
फिल्टर पानी पीते हो,
वे नंगे पैरों दोड़ रहें हैं ,
खेतों को वो गोड़ रहें हैं
सर्दी-गर्मी सब कुछ सहते,
उत्पादन में सर फोड़ रहें हैं.

उनके  घर होगी गास-फूस ,
तेरे सोना-चाँदी-हीरा होगा.


बत्तीस रुपैया में क्या  होगा ,
ऊँट के मुँह में जीरा होगा.









Wednesday, 21 September 2011

सावन के अंधे को, हरा ही हरा , नज़र आता है.

कोयल !
अमराई में रहकर ,
अमराई से मद भरे ,
गाती हो गीत ,
या-
हरे भरे नीम की ,
पकी-पकी निम्बोरियों से,
रखती हो प्रीत.

परन्तु-
नहीं करती हो,
उन पेड़ों की बात ,
जो अहर्निश उतारे जा रहें हैं,
मोत के घाट .

क्योंकि-
तुम ने पीड़ा का ,
एक भी क्षण ,
नहीं  भोगा है,
और '
एक भी अश्रु-कण ,
नहीं छलकाया है.

इसीलिये कोयल !
तुम्हारी बोली में ,
रस भर-भर कर ,
छलक आता है,
ज्यों-
सावन के अंधे को,
हरा ही हरा ,
नज़र  आता है.

Saturday, 17 September 2011

महंगाई सुरसा जैसे , सब को ही वो लील रही है.

महंगाई सांपिन जैसे ,
सब को  ही वो  डस रही है .


रोटी है तो प्याज नहीं ,
प्याज  हाथ तो मिर्च नहीं,
रोज दिहाड़ी जाने वाला,
अपनी रोटी को रोता ,
भूखा  उठता,भूखा जाता ,
आधा भूखा ही सो जाता 

सुबह जाग में ही मिल जाती,
लप-लप  करती जिह्वा को,
महंगाई सांपिन जैसे ,
सब को  ही वो  डस रही है.

दुपहिया में तेल नहीं,
पैदल चलना  खेल नहीं ,
बाबू चश्मा पोंछ  रहें हैं ,
केवल बगलें झाँक रहें हें,
भावज की आधी सूची बाकी है,
घर पर सिर फुटव्वल  बाकी है.

दरवाजे पर पहरा देती ,
लप-लप  करती जिह्वा को,
महंगाई डायन जैसे ,
सब को ही वो कील रही है.

बिजली महंगी ,पानी महंगा ,
आने-जाने पर भाड़ा महंगा,
घर बनाना दूर की कोड़ी ,
पढ़ना -पढ़ाना और भी महंगा,
ऋण की नित नयी मार से ,
घर का  छकडा टूट गया  है.

दसों दिशाएँ दौड़-दौड़ कर  ,
लप-लप  करती जिह्वा को,
महंगाई सुरसा  जैसे ,
सब को ही वो लील  रही है.

ऐसे ही रहना मेरी सोनपरी ,खुशियाँ उमड़ा करती हैं

तेरी मुस्कानों की लय में, कलियाँ झूमा करती हैं.
तेरी मुस्कानों की लय में,तितलियाँ डोला करती हैं.
तेरी मुस्कानों की लय में , लहरें मचला करतीं हैं.
ऐसे ही रहना मेरी सोनपरी ,खुशियाँ उमड़ा करती हैं 

जहर जहर को मारता है.

विषधर !
तुम चन्दन वन में,
चंदनों पर ,
काली-काली कुण्डलियाँ ,
कसकर उन्हें ,
डसा मत करो .

नितांत आवश्यक है,
तुम्हारा विषवमन,
तो,वहाँ करो,
जहां हो रहा है ,
विष-बीजों का अंकुरण .

क्योंकि-
लोहा लोहे को काटता है ,
वैसे ही-
जहर जहर को मारता है.

उससे पूछो , जिसके मुंह में कोर नहीं

भूख की पीड़ा कैसी होती,
यह उससे पूछो ,
जिसके मुंह में कोर नहीं .

दाने- दाने को पाने को,
भोर से जारी संघर्ष है,
मेहनत के प्रतिफल में
केवल, कष्टों का उत्कर्ष है ,

दिन भर की दिहाड़ी में,
सपने हुए पहाड़ से,
आटा-दाल दलिया जरूरी ,
बिंदिया- डाली  उजाड़ में,

कई दिनों से घर में चूहे ,
फिर रहे उदास से , 

भूख की पीड़ा कैसी होती,
यह उससे पूछो ,
जिसके मुंह में कोर नहीं 
.

रात सारी खुले में निकले ,
बदबू- मच्छर  की मार में,
पत्थर ढोते-ढोते बीते,
दिन सेठों के दुर्व्यवहार में,

वो बैठें हैं भव्य भवन में,
वो बैठे हैं  सुनसान में,
ये कैसा फैला  है  द्वैत-द्वंद ,
इंसानों के  न्याय में ,


बेघर की पीड़ा कैसी होती है ,
यह उससे पूछो ,
जिसके सर घर की पोर नहीं .

भूख की पीड़ा कैसी होती,
यह उससे पूछो ,
जिसके मुंह में कोर नहीं.











Friday, 16 September 2011

वेतन सारा रीत गया ,


महीना बीता ना बीता,                 
वेतन सारा रीत गया ,                       
                                                  
फीस-ड्रेस ,पुस्तकें-कॉपियां,                       
लेकर  बटुआ  रीत   गया.                      
मुन्ने का बस्ता बाकी है,
मुन्नी की सेंडिल बाकी है,
जितना चुकता होता है,
उतनी ही  राहत होती है,
लेकिन-
एक घड़ी बीते ना बीते.
चुल्हे की चिंता होती है,
जैसे दुर्वा के कटते ही ,
नव  दुर्वा आ जाती है.
हाय! ऐसे ही दौड़-भाग में,
जीवन सारा रीत गया.


महीना बीता ना बीता,
वेतन सारा रीत गया ,

राशन-पानी,दूध -चाय ,
लेकर  बटुआ रीत गया.

अम्मा की ओषध लानी  है ,
अब्बा  की सुंघनी लानी  है,
पत्नी की साड़ी जीर्ण -शीर्ण,
उसकी भी साड़ी बदलानी है,
लेकिन दिन बीते ना बीते
चिंताएं बढती जाती है,
जैसे सूखी  घास की गठरी ,
चिंगारी लगते ही जल जाती है,
हाय! मरुस्थल में झुलसते ,
जीवन सारा रीत गया.

महीना बीता ना बीता,
वेतन सारा रीत गया ,

नल-बिजली ,अखबार- टेलीफोन ,
लेकर  बटुआ रीत गया.

पहले का उधार  देना है,
घर का भाड़ा भी देना है,
बरसाती मौसम में  भीग  गया,
अच्छा  सा छाता लेना है,
लेकिन दुकान की सीढ़ी पर,
राशन की याद आ जाती है,
जैसे  खुले किनारे को,
लहर काटती जाती है.
हाय! अभाव-समझोते में ,
जीवन सारा रीत गया.


महीना बीता ना बीता,
वेतन सारा रीत गया ,







Thursday, 15 September 2011

एक और समझोता

सब्जी की दुकान पर ,
सब्जी लेती महिला ने,
दुकानदार से कहा-
भाई साहब भिन्डी देदो,
भिन्डी उठाते हुए  पूछा -
ज़रा भाव तो बता दो .

सब्जी वाला भाई बोला -
बहिन जी आपके लिए,
ज्याद नहीं बताउंगा,
मात्र  अस्सी रुपया किलो ,
महिला के हाथ से ,
छूट गयी भिन्डी .

हतप्रभ सी देखती है,
साश्चर्य कहती है-
भाई साहब मुझे लोकी ही देदो,
लोकी लेती है,
और -
अपनी जिंदगी के ,
 समझोते की सूची में,
एक और समझोता  जोड लेती है,

एक अरसे से उस के घर,
माखन नहीं आता है,
तैल भी हो गया बहुत कम ,
बच्चे करते हैं सवाल ,
तब सधी हुई मास्टरनी जी 
की तरह देती है जवाब ,
ये सब बढ़ा  देते हैं ,
केलोस्ट्रोल हमारे शरीर में ,
परन्तु,
उलजा हुआ  है उसका मन-मस्तिस्क,
सब्जी मे  समझोते का,
अब क्या देगी जवाब ?



,

Tuesday, 13 September 2011

आदरणीय मित्रों !
हिंदी -दिवस हिन्दुस्तानी जन-वृन्द के लिए एक उत्सव है,यह दीपावली ,होली, ईद , क्रिसमस डे, ओणम , नव  वर्ष आदि की तरह मनाया जाना चाहिए. परन्तु यह उत्सव मात्र हिंदी -लेखकों और हिंदी- विद्यालयों मैं पढ़नें वालें  
छात्रों का ही रह गया. साहित्य अकादमियां कुछ संस्थानों को पैसा देकर अपना दायित्व पूरा कर लेती हैं. मनाये जाने वाले उत्सव आपसे छिपे नहीं होते हैं. आप उनकी सार्थकता जानते हैं. आप पता नहीं क्यों चुप हैं ? हिंदी हमारी संस्कृति और संस्कार है. यह हमें ईश्वर ने  धरोहर के रूप मैं दी है. यह अगली पीढ़ी को ईमानदारी से सोंपनी है . शोक इस बात का है कि-
                                           "हिंदी दिवस उत्सव के स्थान पर हिंदी का श्राद्ध मात्र बन कर रह गया है."

हिंद देश तन हमारा .हिंदी है मन हमारा .

हिंद देश तन हमारा 
हिंदी है मन हमारा .
                                          
एक दीप एक ज्योत
एक रवि एक चंद
एक लय एक ताल 
एक गीत एक छंद .

आओ मिल के गीत गायें,
हिंदी है धन  हमारा .

हिंदी आज कैद है
मुक्त करें वाद से
आंग्ल -सर्प दंश से 
रुग्ण हिंदी गात है 

आओ मिल के नाद करें ,
हिंदी है धन  हमारा .

प्रात हो या सांज हो 
हिंदी को नमन करें
हिंद-देश भाल पर
हिंदी का सुमन धरें 

आओ मिल के दृढ करें ,
हिंदी है धन  हमारा .





Monday, 12 September 2011

प्रिये! यह चरित्र का मामला है.

नर्स रोगी पर्ची का बकाया ,
एक रूपया  नहीं देती है,
खुल्ले नहीं है,बहाना बनाती है,
मेरे चेहरे की मुद्रा ताड़ कर,
पत्नी सफाई देती है-
अब छोड़ो भी, दवा ले आओ जल्दी से .

अनेक सम्भावनाओं को'
अनुभव करता हुआ चल पड़ा ,
दुकानदार ने दवा दी,
और -
हिसाब से एक रूपया   लिया कम,
उसे उसका चुकता  किया निश्चय से .

नर्स से तुरंत वसूला बकाया ,
पत्नी  ने पूछा यह सब क्या?
समजाने  के  अंदाज में कहा -
प्रिये! यह चरित्र का मामला है. 


Sunday, 11 September 2011

हम हैं राग मल्हार .

११सितम्बर ,विश्व के लिए काला दिवस है. अमेरिका पर आतंकी हमला हर दृष्टि से अमानवीय था. वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हो या भारत में ताज होटल पर बात एक ही है . मुझे इतना जरूर समज में आता है की मनुष्य कपडे पहन कर जरूर बाहर-बाहर से संवर गया लेकिन अन्दर से अभी भी आदिम अवस्था में जी रहा है. दोस्तों   अभी हमारा काम समाप्त नहीं हुआ है-

अभी गर्द इतनी छाई की,
चमन हुआ उदास.
मदहोशी ने पासा  फेंका ,
हार गया उजास .

पर हम पर क्या मदहोशी  होगी . हम हैं राग मल्हार .

Thursday, 8 September 2011

षड-ऋतु की विनम्र परम्परा में,
आने को तत्पर - वसंत .
हाय ! वसंत से पहले ,
दिल्ली में कुत्सित विस्फोट.

दिल्ली में कुत्सित विस्फोट से
न्यायालय के पुनीत अनुष्ठानों में,
आगत शिव-स्वरूप जन-वृन्द ,
पल में बदल  गया शव में,
हाय ! नराधम ;
क्या तुमने नहीं देखा ,
उनके मुख पर -
सुख-दुःख मिश्रित 
भय-उल्लास ,
आशा-निराशा में डोलता,
जीवन - गति ,उत्साह ,

क्षण भर में जीवन-दृश्य,
बदल गया,
मृत्यु के उत्सव में,
शोक-विलाप,कम्पन -रुदन ,
अंग- भंग- विच्छेदन ,जन-कराह 
मांस -मज्जा ,अस्थियाँ -अंतड़ियां ,
इधर -उधर बस आपाधापी ,
दिल्ली में.


भय से सन्न पूरा देश ,
छूट गया, हाथों का काम,
एक ही चर्चा , एक ही शोक,
हुआ पुनः आगात ,
सब कोई ढूंढे अपना-अपना


वर्षा - ऋतु के उल्लास चक्र में,
नदी -तडाग जल से परिपूरित ,
हरित धरा गर्वोन्नत ,
नव योवना सी ,
हाय ! तभी भीषण विस्फोट से,
दहल उठी सारी दिल्ली .

गतिमय जीवन ,
आता-जाता ,
कहीं संचरण, कहीं परिभ्रमण ,
वर्तुल -विरल- सरल,
जन-धारा,
ऐसे लगता मानो जीवन -नद,
कल-कल करता ,बहता जाता,
उत्साह भरा ,




                

Sunday, 4 September 2011

यादों की वो डोर .बंधी हुई उस  छोर.
खींच लेती है   , बरबस गाँव की ओर .

ले चलते हैं पाँव
बस मेरे  ही गाँव 
यादों   में  बसे  
नदिया और नाँव.
                                                                                                                                             
खाना खाना  है यहाँ ,पानी पीना उस ठोर
किसको  है परवाह ,कब होगी अब भोर .

गाड़ी की हिचक में
कन्धों की  छुवन
दूर   कर  देती  है
दिन  की थकन

याद आई है मुझे , कच्ची  मिट्टी की वो पोर ,
संध्या- वेला आरती में, करते बच्चे  शोर .














Thursday, 1 September 2011

नयी गति .नयी- नयी प्रवृत्ति , नयी चिन्तना , नयी-नयी सृष्टि

नयी गति .नयी- नयी प्रवृत्ति ,
नयी चिन्तना , नयी-नयी  सृष्टि.
जय-जय  भारत .जय- जय-जय

चढ़ -चढ़ आया जब-जब ज्वार ,
तव आकर्षण माँ, बस तव आकर्षण.
रोता - चिल्लाता ,
अर्द्ध- शुष्क ,  विकृत  - विगलित ,
मृत -सत्य ,
बहते- बहते  भी करता जाता,
संघर्षण ,
इसको बह जाना होगा ,
रिक्त जगह पर विकसे,
शिव - स्वरूप नव  सत्य 
जय-जय  भारत .  जय- जय-जय


नयी भोर में,
नव आलोक,
सैनिक -पलटन सा ,
कर रहा संचलन,
लेकर  नव  सन्देश,
द्विज - कुल गाये नव-नव गीत,
नूतन छंद में,नूतन रीत



बड़े वेग से , आतुर-व्याकुल ज्वार  ,
कर- कर कोप ,
कूल-कूल पर करता चोट ,
व्याकुल कूल , बह -बह जाता  ,
फिर जम जाता ,
लेकर शुचिता , द्रवित किनारा .
नयी मृदा   के, नर्म कोख में ,
फिर-फिर जन्म ,
नये  अंकुरण की अभिनव पलटन,
करती है जय घोष ,
जय-जय  भारत .जय- जय-जय .

नव- नव परिवेश . नव-नव योवन  ,
बढ़ता है सम्मुख सावेश,
परे रहो ,बढ़ने भी दो,
यह नव सृजन को आतुर-व्याकुल,
इसमें है-
नयी गति .नयी- नयी प्रवृत्ति ,
नयी चिन्तना , नयी-नयी  सृष्टि .
जय-जय  भारत .जय- जय-जय.

संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...