Sunday, 4 September 2011

यादों की वो डोर .बंधी हुई उस  छोर.
खींच लेती है   , बरबस गाँव की ओर .

ले चलते हैं पाँव
बस मेरे  ही गाँव 
यादों   में  बसे  
नदिया और नाँव.
                                                                                                                                             
खाना खाना  है यहाँ ,पानी पीना उस ठोर
किसको  है परवाह ,कब होगी अब भोर .

गाड़ी की हिचक में
कन्धों की  छुवन
दूर   कर  देती  है
दिन  की थकन

याद आई है मुझे , कच्ची  मिट्टी की वो पोर ,
संध्या- वेला आरती में, करते बच्चे  शोर .














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