यादों की वो डोर .बंधी हुई उस छोर.
खींच लेती है , बरबस गाँव की ओर .
ले चलते हैं पाँव
बस मेरे ही गाँव
यादों में बसे
नदिया और नाँव.
खाना खाना है यहाँ ,पानी पीना उस ठोर
किसको है परवाह ,कब होगी अब भोर .
किसको है परवाह ,कब होगी अब भोर .
गाड़ी की हिचक में
कन्धों की छुवन
दूर कर देती है
दिन की थकन
याद आई है मुझे , कच्ची मिट्टी की वो पोर ,
संध्या- वेला आरती में, करते बच्चे शोर .
कन्धों की छुवन
दूर कर देती है
दिन की थकन
याद आई है मुझे , कच्ची मिट्टी की वो पोर ,
संध्या- वेला आरती में, करते बच्चे शोर .
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