कोयल !
अमराई में रहकर ,
अमराई से मद भरे ,
गाती हो गीत ,
या-
हरे भरे नीम की ,
पकी-पकी निम्बोरियों से,
रखती हो प्रीत.
परन्तु-
नहीं करती हो,
उन पेड़ों की बात ,
जो अहर्निश उतारे जा रहें हैं,
मोत के घाट .
क्योंकि-
तुम ने पीड़ा का ,
एक भी क्षण ,
नहीं भोगा है,
और '
एक भी अश्रु-कण ,
नहीं छलकाया है.
इसीलिये कोयल !
तुम्हारी बोली में ,
रस भर-भर कर ,
छलक आता है,
ज्यों-
सावन के अंधे को,
हरा ही हरा ,
नज़र आता है.
तुषार राज रस्तोगी जी !
ReplyDeleteसस्नेह नमस्ते । आपको हृदय से धन्यवाद। ।