भूख की पीड़ा कैसी होती,
यह उससे पूछो ,
जिसके मुंह में कोर नहीं .
दाने- दाने को पाने को,
भोर से जारी संघर्ष है,
मेहनत के प्रतिफल में
केवल, कष्टों का उत्कर्ष है ,
दिन भर की दिहाड़ी में,
सपने हुए पहाड़ से,
आटा-दाल दलिया जरूरी ,
बिंदिया- डाली उजाड़ में,
कई दिनों से घर में चूहे ,
फिर रहे उदास से ,
भूख की पीड़ा कैसी होती,
यह उससे पूछो ,
जिसके मुंह में कोर नहीं
.
रात सारी खुले में निकले ,
बदबू- मच्छर की मार में,
पत्थर ढोते-ढोते बीते,
दिन सेठों के दुर्व्यवहार में,
वो बैठें हैं भव्य भवन में,
वो बैठे हैं सुनसान में,
ये कैसा फैला है द्वैत-द्वंद ,
इंसानों के न्याय में ,
बेघर की पीड़ा कैसी होती है ,
यह उससे पूछो ,
जिसके सर घर की पोर नहीं .
भूख की पीड़ा कैसी होती,
यह उससे पूछो ,
जिसके मुंह में कोर नहीं.
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