महंगाई सांपिन जैसे ,
सब को ही वो डस रही है .
रोटी है तो प्याज नहीं ,
प्याज हाथ तो मिर्च नहीं,
रोज दिहाड़ी जाने वाला,
अपनी रोटी को रोता ,
भूखा उठता,भूखा जाता ,
आधा भूखा ही सो जाता
सुबह जाग में ही मिल जाती,
लप-लप करती जिह्वा को,
महंगाई सांपिन जैसे ,
सब को ही वो डस रही है.
दुपहिया में तेल नहीं,
पैदल चलना खेल नहीं ,
बाबू चश्मा पोंछ रहें हैं ,
केवल बगलें झाँक रहें हें,
भावज की आधी सूची बाकी है,
घर पर सिर फुटव्वल बाकी है.
दरवाजे पर पहरा देती ,
लप-लप करती जिह्वा को,
महंगाई डायन जैसे ,
सब को ही वो कील रही है.
बिजली महंगी ,पानी महंगा ,
आने-जाने पर भाड़ा महंगा,
घर बनाना दूर की कोड़ी ,
पढ़ना -पढ़ाना और भी महंगा,
ऋण की नित नयी मार से ,
घर का छकडा टूट गया है.
दसों दिशाएँ दौड़-दौड़ कर ,
लप-लप करती जिह्वा को,
बिजली महंगी ,पानी महंगा ,
आने-जाने पर भाड़ा महंगा,
घर बनाना दूर की कोड़ी ,
पढ़ना -पढ़ाना और भी महंगा,
ऋण की नित नयी मार से ,
घर का छकडा टूट गया है.
दसों दिशाएँ दौड़-दौड़ कर ,
लप-लप करती जिह्वा को,
महंगाई सुरसा जैसे ,
सब को ही वो लील रही है.
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