Sunday, 26 April 2015

प्रतिध्वनि

पहाड़ी घाटियों के
मध्य खड़े होकर
लगाई गई पुकार,
प्रतिध्वनि के रूप में
लौट कर आती है, 
इसके यह
मायने नहीं कि
अकेलापन
हुआ समाप्त ।

अकेलेपन को
समाप्त करने के लिए,
घाटियों से बाहर
बस्तियों के पास
पहुंचना होगा,
किसी को संबोधन
देना होगा,
विश्वास की दुनिया में
श्रद्धा का
जोड़ना होगा
स्नेह सूत्र ,
जैसे जोड़ता है सूत्र
सर्पिणी के पाश में
कसमसाता जीव
कैलास बसे
निरंजन से।

नेह-सूत्र के
बंधन में आवश्यकता
विवशता की नहीं होती,
आवश्यकता
विश्वास और प्रेम की
होती है,
खेद है कि
हमारे हाथों से
प्रेम और विश्वास
ऐसे फिसले
मानो नदी के चिकने
काई सने घाट से
साबुन की
गंध सनी
टिकिया फिसली।

-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द।

देवता बन जाने के लिए

मेरे लिए 
मेरा घर
मंदिर है 
आते-जाते लोग 
देवता हैं 
तुम दूर रहकर
क्या पा लोगे? 
जरा मेरे 
घर की ओर बढ़ो 
देवता बन जाने के लिए।

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द ( राज)

धवल हंसों की पाँत

सभी कुछ जानना
जरूरी होता नहीं है,
अपूर्ण परिचय से भी
यदि आगे
बढ़ा जा सकता है,
तब सब कुछ
जान लेने की
व्यग्रता में किया गया
उचित नहीं है पागलपन।
अज्ञात को ज्ञात में
परिवर्तित करने की
व्यग्रता ने,
छीन लिया हमसे
नव दिवस का छोर,
छीन लिया हमसे
साँसों का झीना डोर ,
छीन लिया हमसे
सरस भाव का कोर,
छीन लिया हमसे
मधुर जीवन का स्रोत।
हम हठीले भाव को
दो गज जमीन के नीचे
दबा कर
उस पर उगा दें
प्रेम के पुष्प कोई चार,
फिर-फिर छिटक दें
शीतल करुणा की फुहार,
जिससे सघन होगा
जीवन क्रियाओं का
कुसुमित उद्यान।
कुसुमित उद्यान देगा
अपूर्ण परिचय को
कुछ नया विस्तार,
पल्लवित होने को आधार,
जहाँ होंगे
कुछ राग और विराग,
जहाँ पथ पर मिलेंगे
कुछ धवल विश्वास,
जहाँ पार्श्व से प्रकट होंगे
जिजीविषा के दृढ़ भाव
जैसे अचानक शीत में
प्रकट होती
धवल हंसों की पाँत।
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज.)

Monday, 6 April 2015

प्रेम की फसल



मुश्किल होता है
पीछे लौटना,
उससे भी अधिक
मुश्किल होता है
नीचे झुकना I
तुम्हारे लिए पीछे लौटने में
और नीचे झुकने में
तनिक भी कठिनाई नहीं,
जैसे पेड़ के तले
पके हुए फल को देख
लौट आता है
मीलों चला आदमी
फल को उठाने के लिए
दुहरा होता है
बोझे से दबा आदमी I
यों तो हर फसल के लिए चाहिए
नर्म और साफ़ खेत
मीठा पानी और गुनगुनी धूप ,
प्रेम की फसल के लिए
लौटना और झुकना ही
होता है पर्याप्त,
उसीसे टूटती है दुरभिसंधियाँ
जैसे लौट आता है बादल
धरती से मिलने के लिए
झुक जाता है
प्रेम की फसल को बोने के लिए
बरसात के साथ,
इसी के साथ
धरती हो जाती है नम्र
खोकर सारी ग्रन्थियाँ I
लौटना और झुकना
पराजय है नहीं
कहीं न कहीं इसमें छिपा है
विजय का पथ कहीं,
लौटना और झुकना
रुकना है नहीं
कहीं न कहीं मिलता है
नवीन प्रारम्भ का संदर्भ कहीं,
लौटना और झुकना
मृत्यु है नहीं
कहीं न कहीं इसमें निहित है
नवीन जीवन का स्रोत कहीं I
लौटना और झुकना,वे ही जानते हैं
जो प्रेम की फसल बोना जानते हैं,
वे यह भी जानते हैं-
प्रेम की फसल, फसल ही नहीं है,
यह है –
नर्म और साफ़ खेत भी
मीठा पानी और गुनगुनी धूप भी
जिन पर बोई जाती है
जिंदगी की तमाम फसलें I
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज)

प्रेम के सन्दर्भ में

रखी गई खिड़कियाँ
हवा के लिए
उजास के लिए
बाहर की ओर दिखाई दे अपना
उसे अपने पास बुलाने के लिए I
रखी नहीं गई खिड़कियाँ
घुटन के लिए
आस-पास अँधेरे को
बनाए रखने के लिए
बाहर फैले हुए रिश्तों की
लता को काटने के लिए I
खिड़कियों पर डाल देना
झीनी-झीनी सी यवनिका,
परन्तु,
सटा कर निर्जीव कपाट
चढ़ा मत देना अर्गला,
नहीं तो मर ही जाएगी
चिड़िया सी पलती
नाजुक सी संभावनाएं
जो कि, जरूरी हुआ करती है
जीवन-यौवन के स्पंदन के लिए I
छोड़ दिया है मैंने
अब करना प्रार्थनाएं,
कर लिया है तय
खिड़कियों के तले खुलकर पुकारना,
जिससे तुम खिड़कियाँ खोलकर
झांको मेरी ओर
और मैं तुमसे बना सकूं संवाद
प्रेम के सन्दर्भ में साथ चलने के लिए I
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज)

उपहार नहीं ला सकता

प्रिये! अब न पूछो -
इतनी देर कहाँ रह गया,
घर आकर भी
कौन सा तीर मार लेता,
मेरे हाथों में तुम्हारे लिए 
उपहार तो था नहीं
जो जल्दी आ जाता,
तुम्हें खुश करने के अवसर
मेरे हाथों से ऐसे फिसले
मानो भरी झील में
हाथ लगी रोहू फिसल गई I
प्रिये! तुम इतनी देर तक
प्रतीक्षा में
रात-रात भर क्यों जागरण करती,
मुझे भय नहीं लगता
अंधेरों से,
मुझे भय नहीं लगता
अतिवादियों से,
क्योंकि छले तो दिन में भी जाते हैं
मारे तो अपने लोगों से भी जाते हैं
इसलिए अंधेरों में
भटक गए
दोस्तों की तलाश करता हूँ I
प्रिये! तुम मेरी उदासियों से
इतनी अधिक
खिन्न न हुआ करो,
ऐसा कौन सा
सीता स्वयंवर का प्रसंग
चल रहा है,
जिसे देखकर प्रसन्न हुआ जा सके,
अब तो जहाँ-तहाँ
स्वर्ण मृग के प्रसंगों को सुन-सुन
ह्रदय बैठ जाता है I
प्रिये! तुम भूख की
मोटी चादर
क्यों ओढ़े रखती हो,
मेरी भूख और प्यास
के प्रसंग
मेरी सूची में
सबसे अंतिम क्रम पर हैं,
पहचान की जद्दोजहद में
इतना व्यस्त हूँ
इन पर मेरा चिंतन ही नहीं जाता,
हाँ, दोस्तों से
अस्मिता के सवाल पर
बतियाते हुए,
चाय और बिस्किट तो
ले ही लेता हूँ
और इसीसे मेरा काम भी
चल ही जाता है I
प्रिये! तुम्हारी स्मृतियों में
बने रहने के लिए
क्या-क्या नहीं करता,
मैं कृतज्ञ हूँ
तुम अपनी स्मृतियों में
मुझे बनाए रखती हो,
मुझे खेद है कि
तुम्हारे लिए उपहार नहीं ला सकता I
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज)

मैं प्रेम करता हूँ

तुम जानते हो
तुम्हारे सवालों के जवाब
मैं नहीं दे सकता,
फिर भी
पूछ ही लेते हो 
वे ही सवाल
जिनको पूछ चुके हो
कई-कई बार मुझको,
जिनकी करते हो
बार-बार आवृत्ति
जैसे ऋतुचक्र के
आने–जाने पर
जलते मौसम की
हो जाती है पुनरावृत्तिI
मैं प्रेम करता हूँ?
शायद हाँ,
इसलिए कि
मैं इसके बिना
रह नहीं सकताI
मैं प्रेम करता हूँ?
शायद नहीं,
इसलिए कि
मैं प्रेम को
अभिव्यक्त
नहीं कर सकता I
कभी-कभी
सवालों के जवाब
शब्दों से
नहीं मिला करते,
शब्दों के स्थान पर
कांपते हुए होठ
थरथराती देह
अपलक आँखें
और
अपराधबोध का भाव
देते चले जाते हैं।
लेकिन,
वाणी सुनने को
हठी कर्ण
मूक जवाब
स्वीकार नहीं करते
जैसे आत्ममुग्ध जन
अन्य को
नहीं गिना करतेI
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज)

प्रिये! तुम नदी सी

प्रिये! तुम नदी सी
निर्मल और मधुर जल से
परिपूर्णा तुम,
प्रिये! तुम नदी सी
निरंतर प्रवाहिता गति से 
वेगवती तुम,
प्रिये! तुम नदी सी
सृजन से जीवन दायिनी
वत्सला तुम.
प्रिये! तुम नदी सी
यह तुम्हारी प्रकृति,
विनत हूँ तुम्हारे प्रतिI
प्रिये! मैं मानता हूँ
मैं समन्दर
मेरा अस्तित्त्व क्षार से परिपूर्ण,
स्मरण रखना
यह क्षार आया था
तुम्हारे प्रवाह के सह,
प्रिये! मैं मानता हूँ
मैं अपनी जगह स्थिर
स्मरण रखना
सदा तुम्हारी प्रतीक्षा में,
प्रिये! मैं मानता हूँ
मेरे तट हैं उद्दाम और अल्हड,
इसलिए कि-
तेरे वत्स आपाधापी के बाद
कुछ क्षण मेरे यहाँ
फिर बचपन जी लें,
प्रिये! यह मेरी प्रकृति
जिसके कारण बन जाती
तेरे लिए ही
अनगिनत संभावनाएंI
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द ( राज )

हम एक हो जाएं

पूरे युग के
बीत जाने पर मिले हो,
बंद होठों पर
वही चुप्पी
जो मुझे रही सालती
जैसे कोठरी में
बंद कोई
और मर रहा है
अन्य कोई।
ना जाने कौन सी
तुम कर रहे हो साधना
या ले रहे हो
सतत मेरी परीक्षा,
यह साधना हो या परीक्षा
लेकिन तुम्हें
सुनने की व्यग्रता में
दम तोड़ती है साँस मेरी।
मालूम नहीं
फिर कब मिलेंगे
क्षण यही है हाथ अपने
बोल देना
दो शब्द ऐसे
हम एक हो जाएं जैसे कि
एक हो जाते नदी-सागर।
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज.)


ठिकाने को मत ठोकर मार

ठिकाने को मत ठोकर मार I
अंदर जमें पत्थर को मार II

तुझे उठाने वाला सम्मुख I
उसको तू ना धक्का मार II

मुर्गे से कब दुनिया जागी I
जली लो पर फूंक न मार II

धरती पर आँसू बहते हैं I
ऊँचे नभ चढ़े पंख न मार II

जालिम किस्सों से डर फैला I
गुडिया जैसी दुनिया न मार II

धर्म-कर्म पर संशय भारी I
हो कर अंधला हाथ न मार II

अक्ल का अंधा देश बेचता I
पैरों पर कुल्हाड़ी न मार II

डोला करती नित ही तकडी I
मन-मंदिर के ईश ना मार II
इच्छाएं तो नगरवधू सी I
इनके पीछे रूह ना मार II
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज)

सिक्के का हर पहलू तेरा

सिक्के का हर पहलू तेरा I
पर चांदी का सिक्का मेरा II
तकड़ी तेरी बिल्ला तेरा I
पर रोटी का टुकड़ा मेरा II
सोना-चांदी सब ही तेरा I
काली स्याही कागज़ मेरा II
सुविधा तेरी साधन तेरा I
ऊँचा-नीचा है पथ मेरा II
चीख तेरी व भोंपू तेरा I
नहीं भटकता रिश्ता मेरा II
ढोलक तेरी नर्तन तेरा I
ना रीझूं तो ये मन मेरा II
मस्जिद तेरी मंदिर तेरा I
सीधा-सादा शबद है मेरा II
ताकत तेरी डंडा तेरा I
मैं बोलूँगा ये मुँह मेरा II
भीड़ तेरी व नारा तेरा I
क्या करना है चिंतन मेरा II
सत्ता तेरी पद भी तेरा I
इन पर भारी है मत मेरा II
फांदी तेरी चारा तेरा I
मैं काटूं ये नश्तर मेरा II
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज) 

खडा मैं भी हूँ और तू भी है

खडा मैं भी हूँ और तू भी है।
तंग मैं भी हूँ और तू भी है।

हमीं से लिपट गया है धुंआ।
आग मैं भी हूँ और तू भी है।

अन्दर बाहर जले तो यूं जले।
राख मैं भी हूँ और तू भी है।

समझ में आया होगा सफर।
साथ मैं भी हूँ और तू भी है।

वे हाथ झटक के चल दिए।
भार मैं भी हूँ और तू भी है।

प्यादों के बीच प्यादे ही रहे।
चाल मैं भी हूँ और तू भी है।

वक्त को देख और ज़रा संभल ।
तीर मैं भी हूँ और तू भी है।

कभी तो होगा लोहा गर्म।
चोट मैं भी हूँ और तू भी है।
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द. (राज.)


निर्मम बंटवारे को

सजा दिया है मैनें झूला 
निस्संदेह चले आना 
मन चाहे जितना भी तुम 
मेरी नर्म भुजा में तुम
किंचित झूल लेना ऐसे कि 
थका-थका तेरा तन झूले 
भरा-भरा मेरा मन झूले 
इतने झोंके मृदुल पवन के 
तन को छूने देना तुम 
अन्दर मन तक वो जाए,
जैसे तपे हुए दिवस में
या भट्टी के लगे ताप में 
हम अन्दर-बाहर भरना चाहे 
शीतल-आर्द्र पवन के झोंके I
इतना जान गए हम भी 
इतना जान गए तुम भी 
बाहर की आपाधापी से 
तिस पर खींचातानी से 
मुझको सब ही बाँट रहे ये 
तुमको सब ही बाँट रहे ये, 
मौसम बदले उससे पहले 
हाथ बढाकर नेह मिलाकर 
ऐसे रोकें ऐसे बांधे 
इस निर्मम बंटवारे को 
जैसे रेशम के तागों से 
रूखे-सूखे बिखरे केशों का 
हाथों से सहला-सहला कर 
बाँध दिया हो सुन्दर झूड़ा I
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द. (राज.


सभी के लिए

आज मैं जहां हूँ 
कल वहाँ से बढ़ जाऊं 
मेरे पैरों को 
आगे बढाने के लिए बिजलियाँ 
मचलती हैं I
मैंने बसंत में 
पहली सांस ली 
मेरी धड़कन 
वासंती मौसम के लिए 
धड़कती हैं I
मेरी दुनिया में 
फसलें झूमी है 
आज नई फसलें 
कागज़-कलम का बल लिए 
लहराती हैं I
होंसले की 
थाह इस तरह लो 
जहां भी नहीं है न्याय 
मेरी लड़ाई अनवरत 
चल पड़ती है I
मेरे प्यार का 
दायरा छोटा नहीं समझो 
जो भी चारों ओर बिखरा है 
सभी के लिए 
मीठी बरसात  बरसती है I
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द. (राज.


टका रा झंजाल सूं

मोटी गादी पे 
कतराई चढ़ ने उतर गिया, 
पण हूनी आँखियाँ तक 
उजास रो रेलों नी आयोI
छोरी बारे निकलती डरपे 
लुच्चो भरी छातियाँ जो ताके 
चिकणी-चुपड़ी वातां करतो 
बाबूडियो आंख्याँ मचकावे 
चालती मोटर मे डोकरो
कने बैठ जांघ पे हाथ फरावे, 
कने तो को ने कूँण हूणसीI
हूनी आँखियाँ केवे
ए रे भायला! उजास तो आसी 
पण हंगला कूड़ा भांग पड़ी रे 
अणी भांग रो फैसलो कद होसीI
बेटियाँ ने ले ये हूनी आंख्याँ
नींद काढ़े कोने
ये बेटियाँ भणे तो बाप रो जीव जाणे
ये कि कर भणे?
ये बेटियाँ परणे तो बाप रो जीव जाणे
ये कि कर परणे?
हूनी आंख्याँ में बेटियाँ रो हूल यूं लागे 
हम्ज्या थें यूं जाणो के 
गुड़हल रा फूल हरीखा 
राता-राता खीरा पगतल्याँ ने दाजे I
हूनी आंख्याँ केवे-
कवि! थारा हाथां सूं मारो लिख दरद
कद तो उजास री ठाड़ी नंदी आवेली 
ने धधकता खीरा बुजा जावेली I
हूनी आंख्याँ अरज करे तो कठे करे 
सब ठोर टका री माया 
टका देखे, टका हुणे, 
टका बोले, टका गावे 
टका जेकारा मारे, 
टका भाग रा लेख लिखे 
टका रा जोर पे 
चोर हाउकार रे हामे चोड़ी छातियाँ कर चाले 
अर, झूठलो हाउकार रे माथे चढ़-चढ़ आवे 
अस्या टका राज में
बेटियाँ घर री चारदिवारी में आँसूड़ा रड़कावेI
हूनी आंख्या केवे-
या आंख्याँ देखी वात हाँची 
के आज उलजगी बेटियाँ
जाणे उलजगी तांता में माछलियाँI
अबे धधकवा लागी हूनी आंख्याँ,
जूं धधक पड्यो है दावानल
हूनी आंख्याँ सवाल पूछे - 
टका रा तलघर में उजास बंद क्यूं ?
टका रा तलघर में न्याव बंद क्यूं ?
हूनी आंख्या केवे-
एक दन ताकड़ी वाली देवी ने 
आंख्याँ री लीरी उतारणी पड़ेली
टका रा झंजाल सूं जीवणी निकालणी पड़ेली II
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज)


सगला ने रोटी चाईजे

सगला ने रोटी चाईजे
पेट भरण रे खातिर,
आ भूख हंगलाने
एक हरिखी सतावे,
भूख रा तेवर तो देखो
अणि री चाबुक री फटकारा में
छोटा कई ने बड़ा कई
एक जसा छटपटावे
जाणे के माछली ने
पाणी रे बार काढ़ फेंकी
कदी- कदी असो लागे के
हंडासी सूं आन्तडियाँ भींच नाकीI
छोटा मानुष री भूख
दो मुट्ठी अनाज री
पण बड़ा-बड़ा हाथियाँ री भूख
दो मुठी धान सूं कठे माने,
वणा री भूख मांगे
वामनावतार रे पगा सूं नापी धरती
ने मांगे धरती भर रो धन रो ढेपो I
जदि सूं धरती पे
सर्जन रो फेरो वियो
वदी सूं करसा ने कामगार आया
अणारे पाँती धरा आई
धरा सूं प्रगटी
चमचमाती सोना री नंदी,
पण या धरती अर सोना री नंदी
कद करसा ने कामगार रे हाथ लागीI
भारी-भरकम डील-डोल वाला मैमन्ता री भूख
धरा और होना री नंदी ने
हजम करती वदोतर वेती जावे
पण वा रुके कोने,
ज्यूं हरियाला वन रे मायने
बावलों हाथी बरड- बरड कर ने
वन ने चट करतो जावे
ने आगले दन
पाछो भूखो रो भूखो I
आज करसा ने कामगार
आपणी-आपणी पागडियाँ फेरवा लाग्या
अबे मेमंता ने रोकणों पडसी,
नी रोक्या तो
छोटा ने निगल जासीI
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज)
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Bottom of Form


संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...