Monday, 6 April 2015

हम एक हो जाएं

पूरे युग के
बीत जाने पर मिले हो,
बंद होठों पर
वही चुप्पी
जो मुझे रही सालती
जैसे कोठरी में
बंद कोई
और मर रहा है
अन्य कोई।
ना जाने कौन सी
तुम कर रहे हो साधना
या ले रहे हो
सतत मेरी परीक्षा,
यह साधना हो या परीक्षा
लेकिन तुम्हें
सुनने की व्यग्रता में
दम तोड़ती है साँस मेरी।
मालूम नहीं
फिर कब मिलेंगे
क्षण यही है हाथ अपने
बोल देना
दो शब्द ऐसे
हम एक हो जाएं जैसे कि
एक हो जाते नदी-सागर।
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज.)


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