Monday, 6 April 2015

उपहार नहीं ला सकता

प्रिये! अब न पूछो -
इतनी देर कहाँ रह गया,
घर आकर भी
कौन सा तीर मार लेता,
मेरे हाथों में तुम्हारे लिए 
उपहार तो था नहीं
जो जल्दी आ जाता,
तुम्हें खुश करने के अवसर
मेरे हाथों से ऐसे फिसले
मानो भरी झील में
हाथ लगी रोहू फिसल गई I
प्रिये! तुम इतनी देर तक
प्रतीक्षा में
रात-रात भर क्यों जागरण करती,
मुझे भय नहीं लगता
अंधेरों से,
मुझे भय नहीं लगता
अतिवादियों से,
क्योंकि छले तो दिन में भी जाते हैं
मारे तो अपने लोगों से भी जाते हैं
इसलिए अंधेरों में
भटक गए
दोस्तों की तलाश करता हूँ I
प्रिये! तुम मेरी उदासियों से
इतनी अधिक
खिन्न न हुआ करो,
ऐसा कौन सा
सीता स्वयंवर का प्रसंग
चल रहा है,
जिसे देखकर प्रसन्न हुआ जा सके,
अब तो जहाँ-तहाँ
स्वर्ण मृग के प्रसंगों को सुन-सुन
ह्रदय बैठ जाता है I
प्रिये! तुम भूख की
मोटी चादर
क्यों ओढ़े रखती हो,
मेरी भूख और प्यास
के प्रसंग
मेरी सूची में
सबसे अंतिम क्रम पर हैं,
पहचान की जद्दोजहद में
इतना व्यस्त हूँ
इन पर मेरा चिंतन ही नहीं जाता,
हाँ, दोस्तों से
अस्मिता के सवाल पर
बतियाते हुए,
चाय और बिस्किट तो
ले ही लेता हूँ
और इसीसे मेरा काम भी
चल ही जाता है I
प्रिये! तुम्हारी स्मृतियों में
बने रहने के लिए
क्या-क्या नहीं करता,
मैं कृतज्ञ हूँ
तुम अपनी स्मृतियों में
मुझे बनाए रखती हो,
मुझे खेद है कि
तुम्हारे लिए उपहार नहीं ला सकता I
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज)

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