सजा दिया है मैनें झूला
निस्संदेह चले आना
मन चाहे जितना भी तुम
मेरी नर्म भुजा में तुम
किंचित झूल लेना ऐसे कि
थका-थका तेरा तन झूले
भरा-भरा मेरा मन झूले
इतने झोंके मृदुल पवन के
तन को छूने देना तुम
अन्दर मन तक वो जाए,
जैसे तपे हुए दिवस में
या भट्टी के लगे ताप में
हम अन्दर-बाहर भरना चाहे
शीतल-आर्द्र पवन के झोंके I
निस्संदेह चले आना
मन चाहे जितना भी तुम
मेरी नर्म भुजा में तुम
किंचित झूल लेना ऐसे कि
थका-थका तेरा तन झूले
भरा-भरा मेरा मन झूले
इतने झोंके मृदुल पवन के
तन को छूने देना तुम
अन्दर मन तक वो जाए,
जैसे तपे हुए दिवस में
या भट्टी के लगे ताप में
हम अन्दर-बाहर भरना चाहे
शीतल-आर्द्र पवन के झोंके I
इतना जान गए हम भी
इतना जान गए तुम भी
बाहर की आपाधापी से
तिस पर खींचातानी से
मुझको सब ही बाँट रहे ये
तुमको सब ही बाँट रहे ये,
मौसम बदले उससे पहले
हाथ बढाकर नेह मिलाकर
ऐसे रोकें ऐसे बांधे
इस निर्मम बंटवारे को
जैसे रेशम के तागों से
रूखे-सूखे बिखरे केशों का
हाथों से सहला-सहला कर
बाँध दिया हो सुन्दर झूड़ा I
इतना जान गए तुम भी
बाहर की आपाधापी से
तिस पर खींचातानी से
मुझको सब ही बाँट रहे ये
तुमको सब ही बाँट रहे ये,
मौसम बदले उससे पहले
हाथ बढाकर नेह मिलाकर
ऐसे रोकें ऐसे बांधे
इस निर्मम बंटवारे को
जैसे रेशम के तागों से
रूखे-सूखे बिखरे केशों का
हाथों से सहला-सहला कर
बाँध दिया हो सुन्दर झूड़ा I
-त्रिलोकी
मोहन पुरोहित, राजसमन्द. (राज.
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