क्षमा करें कपि वर, लंक-देश नृप भ्रष्ट ,
तैसा ही है जन-वृन्द , संदेह सहज है .
माया की प्रतिष्ठा यहाँ , असत्य ही सर्वत्र है ,
साधु पर प्रश्न चिह्न , लगाना सहज है.
पग-पग मूल्य-क्षय , मर्यादा है तार-तार ,
सर पर भय-भाव , चढ़ना सहज है.
ऐसे वायु-मंडल में , श्वांस लेना दुर्भर है,
राम के वियोग में तो ,मरना सहज है.
खिन्न ना हो महतारी, तव वत्स उपस्थित ,
तैसा ही है जन-वृन्द , संदेह सहज है .
माया की प्रतिष्ठा यहाँ , असत्य ही सर्वत्र है ,
साधु पर प्रश्न चिह्न , लगाना सहज है.
पग-पग मूल्य-क्षय , मर्यादा है तार-तार ,
सर पर भय-भाव , चढ़ना सहज है.
ऐसे वायु-मंडल में , श्वांस लेना दुर्भर है,
राम के वियोग में तो ,मरना सहज है.
खिन्न ना हो महतारी, तव वत्स उपस्थित ,
अविलम्ब लौटता हूँ, स्वामी शीघ्र आयेंगे.
मूल्यों की प्रतिष्ठा हेतु ,त्रासदी के अंत हेतु ,
देवी तव मान हेतु , प्रभु अत्र आयेंगे .
धर्म-प्रति ग्लानि को , समूल नष्ट करने हेतु ,
शुचि ध्वज आरोहण , भव - धन आयेंगे .
दशग्रीव रोंद कर , भव कर थाम कर ,
बनने संयोगी हेतु , तव प्रिय आयेंगे.
कपि राज वचन तव , मम हित अनुकूल ,
मरू-भू में मिला मानो,शुचि जल श्रोत हो.
अतीव सुखद हुआ , राम का विश्वस्त यहाँ ,
निर्धन को मिला मानो, अर्थ युक्त कोष हो.
मूल्य की प्रतिष्ठा हेतु , प्रिय अत्र आयेंगे,
वत्स तव कथन तु , पूर्व का उद्घोष हो.
रोंदा जाए दशग्रीव , राम को उचित होगा ,
प्रिय कैसे रहते हैं , कहो तो संतोष हो .
महतारी कैसे कहूँ ? राम के व्यवहार को ,
वियोगी बन रहते, आप के अभाव में.
दिवस प्रारम्भ से वो , खोजते हैं जहाँ-तहाँ ,
नाम ले पुकारते हैं, आप के प्रभाव में .
रजनी व्यतीत होती, अनुज सह चर्चा में ,
हर चर्चा रंगी होती, आप के सुभाव में .
पथिक से पूछते हैं , खेचर से पूछते हैं,
शून्य में ही ताकते हैं,राम के स्वभाव में .
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