माता ! जग मंच सम , हम सब पात्र हैं ,
नाट्य व्यवहार सम , खेलना ही होता है.
अब मुझे जाना होगा , सन्देश लेजाना होगा ,
राज - कार्य रीती यह , करना ही होता है .
क्षुधा और प्यास से मैं , बहुत ही व्याकुल हूँ ,
उदर को उसका कर , चुकाना ही होता है.
आज्ञा हो तो माता अब , फल-फूल भोग लूँ ,
गुरु-जन की आज्ञा को , पालना ही होता है.
सुमुखी विहंस कर , कहती है कपि श्री से,
ओह ! वत्स आंजनेय,सुख से आहार लो.
समृद्ध अशोक वन , बहुत ही कुटिल है ,
तृप्ति हेतु कौशल से , करना विहार को .
ममतामयी आभारी,सुवत्स हूँ आज्ञाकारी ,
शीघ्र दूर करता हूँ , क्षुधा के विकार को .
कहते ही शाखामृग , चढ़ गये वृक्ष पर ,
मानो शशि-आकर्षण,खींचता है ज्वार को.
विटप से विटप को , आंजनेय कूदते हैं ,
गहरी हुंकार कर , शाख - शाख धावते.
कूर्दन - धावन कर , वन को झकझोरते ,
पत्र-पुष्प -फल से ही , अवनी को पाटते .
भ्रष्ट हुई शाखाएं जो , क्षपा सम चीखती हैं ,
वनपाल दैत्य सब , भय मारे ताकते .
देखो-देखो कैसा कपि , निर्भय व्यवहार में ,
वन को उजाड़ता है , कह - कह भागते.
नाट्य व्यवहार सम , खेलना ही होता है.
अब मुझे जाना होगा , सन्देश लेजाना होगा ,
राज - कार्य रीती यह , करना ही होता है .
क्षुधा और प्यास से मैं , बहुत ही व्याकुल हूँ ,
उदर को उसका कर , चुकाना ही होता है.
आज्ञा हो तो माता अब , फल-फूल भोग लूँ ,
गुरु-जन की आज्ञा को , पालना ही होता है.
सुमुखी विहंस कर , कहती है कपि श्री से,
ओह ! वत्स आंजनेय,सुख से आहार लो.
समृद्ध अशोक वन , बहुत ही कुटिल है ,
तृप्ति हेतु कौशल से , करना विहार को .
ममतामयी आभारी,सुवत्स हूँ आज्ञाकारी ,
शीघ्र दूर करता हूँ , क्षुधा के विकार को .
कहते ही शाखामृग , चढ़ गये वृक्ष पर ,
मानो शशि-आकर्षण,खींचता है ज्वार को.
विटप से विटप को , आंजनेय कूदते हैं ,
गहरी हुंकार कर , शाख - शाख धावते.
कूर्दन - धावन कर , वन को झकझोरते ,
पत्र-पुष्प -फल से ही , अवनी को पाटते .
भ्रष्ट हुई शाखाएं जो , क्षपा सम चीखती हैं ,
वनपाल दैत्य सब , भय मारे ताकते .
देखो-देखो कैसा कपि , निर्भय व्यवहार में ,
वन को उजाड़ता है , कह - कह भागते.
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