Sunday, 18 December 2011

माता ! जग मंच सम , हम सब पात्र हैं ,
                   नाट्य व्यवहार  सम , खेलना ही होता है.
अब मुझे जाना होगा , सन्देश लेजाना  होगा ,
                    राज - कार्य रीती यह , करना ही होता है .
क्षुधा और प्यास से मैं , बहुत ही व्याकुल हूँ ,
                     उदर को उसका कर , चुकाना ही होता है.
आज्ञा हो तो माता अब , फल-फूल भोग लूँ ,
                     गुरु-जन की आज्ञा को , पालना ही होता है.
                       
सुमुखी विहंस कर , कहती है कपि श्री से, 
                     ओह ! वत्स आंजनेय,सुख से आहार लो.
समृद्ध अशोक वन  , बहुत ही कुटिल है ,
                     तृप्ति हेतु कौशल से , करना विहार को .
ममतामयी  आभारी,सुवत्स हूँ आज्ञाकारी ,
                      शीघ्र दूर करता हूँ , क्षुधा के विकार को .
कहते ही शाखामृग , चढ़ गये वृक्ष पर ,
                       मानो शशि-आकर्षण,खींचता है ज्वार को.

विटप से विटप को , आंजनेय कूदते हैं ,
                       गहरी हुंकार कर , शाख - शाख धावते.
कूर्दन - धावन कर , वन को झकझोरते ,
                        पत्र-पुष्प -फल  से ही , अवनी को पाटते .
भ्रष्ट हुई  शाखाएं जो ,  क्षपा सम चीखती हैं  ,
                         वनपाल  दैत्य  सब , भय  मारे  ताकते .
देखो-देखो कैसा कपि , निर्भय व्यवहार में ,
                          वन  को उजाड़ता  है , कह - कह भागते.
                                                 

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