Sunday, 25 December 2011

देखा कपि श्री ने वहाँ , दुर्धर  सुभट आया,
                    दिवस में लिया मानो,अवतार तम ने .
श्याह-देह वक्र-मुख , घन सी गंभीर काया , 
                   मेघनाथ लगता था , रूप लिया घन ने ,
वज्रांग  हुंकार करे , गंभीर गर्जन करे ,
                   दैत्य के समक्ष मानो , रोष किया यम ने.
कुछ मरे  कुछ भागे , मेघनाथ चिन्तता है ,
                   वानर सा वानर या ,  कपि  रूप  हर  है.
                     
वीर द्वय भिड़ गये , रण होता कौशल से ,
                  ठेल - ठेल भिड़ते हैं , भिडंत दिखाते हैं .
मध्य में आते -जाते , अन्य रक्ष मारे जाते,
                  दाँव मार - मार कर , लड़ंत  बनाते  हैं .
अस्त्र-शस्त्र साध कर , घात-प्रतिघात कर ,
                  पूर्ण प्राण साधकर , सुखंभ टिकाते हैं.
श्रृंग चूर -चूर होते , धूलि-घन मंडराते ,
                  आग्नेयास्त्र चलते हैं , सुअंत रचाते हैं .

थाप मारी कपि ने , अचेत हो इन्द्रजीत ,  
                  लोट गया धरा पर , मानो कटा वृक्ष हो  .
शीघ्र ही सचेत हो के , बढ़ता है कपि ओर ,
                  कपि वृक्ष पर चढ़े , मानो यही  फल हो.
सुघात लगाते हुए , शाखा-शाखा कूदते हैं ,
                  चढ़ जाते दैत्य मार , मानो यही कर्म हो .
इन्द्रजीत विवश हो , कर गहे ब्रह्म - सर,  
                  मानो कपि साधने का , शेष यही पंथ हो .
                   




                    

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