Friday, 30 December 2011

जनक सभा के मध्य , हिला ही नहीं पिनाक ,
                      लज्जित हुवे  थे  अति , तत्र  अहंकार से .
यमी साक्ष्य लिए हुवे , सहस्त्रबाहु द्वंद्व के ,
                     आप वहाँ बच गए , सुमाली  सौभाग्य से .
कौतुक में ही बालि ने ,चाँप लिया भुज तले,
                     छोड़ दिया विप्र मान , पुलस्त्य प्रभाव से .
स्वामी ! भवत् विरद से , पूर्व से ही भिज्ञ हूँ मैं ,
                     प्रीति हो तो और कहूँ ? आप के आदेश से .

विचलित दशग्रीव  , इंगित कर तर्जनी ,
                      कहता  है वानर से ,कपि कटुभाषी है.
कई-कई रण कर , देव-नर-नाग जीते ,
                      पर  तुझे दृष्ट  नहीं , अति  बकवादी  है.
अनुभूत सत्य यह , सुकृति है रक्ष-राज   ,
                      अंध नेत्र सुहाये ना ,अति ही विरोधी है. 
जिसे चाहा खुद या , नहिं या जीत लिया,
                      मेरा कहा कौन टाले? रावण यशस्वी है.


स्वयं का विरद गान , तुच्छ जन करते हैं,
                      अन्य जन यश कहें , सम्मान  वो  मानिए.
व्यक्तिनिष्ठ हो कर के, लोक का दमन कर ,
                      तुच्छ  काम साधते हैं , कुराज  वो  मानिए.
शोषण-दमन कर , हरण-दलन कर ,
                      तन्त्र चाहे कैसा भी हो ,ध्वस्त ही वो मानिए.
स्वामी यह अहंकार , पंक सम  लीलता है ,
                      प्रभु-द्रोही संस्कृति को ,कुत्सा ही वो मानिए .                      

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