जनक सभा के मध्य , हिला ही नहीं पिनाक ,
लज्जित हुवे थे अति , तत्र अहंकार से .
यमी साक्ष्य लिए हुवे , सहस्त्रबाहु द्वंद्व के ,
आप वहाँ बच गए , सुमाली सौभाग्य से .
कौतुक में ही बालि ने ,चाँप लिया भुज तले,
छोड़ दिया विप्र मान , पुलस्त्य प्रभाव से .
स्वामी ! भवत् विरद से , पूर्व से ही भिज्ञ हूँ मैं ,
प्रीति हो तो और कहूँ ? आप के आदेश से .
विचलित दशग्रीव , इंगित कर तर्जनी ,
कहता है वानर से ,कपि कटुभाषी है.
कई-कई रण कर , देव-नर-नाग जीते ,
पर तुझे दृष्ट नहीं , अति बकवादी है.
अनुभूत सत्य यह , सुकृति है रक्ष-राज ,
अंध नेत्र सुहाये ना ,अति ही विरोधी है.
जिसे चाहा खुद आया , नहिं आया जीत लिया,
मेरा कहा कौन टाले? रावण यशस्वी है.
स्वयं का विरद गान , तुच्छ जन करते हैं,
अन्य जन यश कहें , सम्मान वो मानिए.
व्यक्तिनिष्ठ हो कर के, लोक का दमन कर ,
तुच्छ काम साधते हैं , कुराज वो मानिए.
शोषण-दमन कर , हरण-दलन कर ,
तन्त्र चाहे कैसा भी हो ,ध्वस्त ही वो मानिए.
स्वामी यह अहंकार , पंक सम लीलता है ,
प्रभु-द्रोही संस्कृति को ,कुत्सा ही वो मानिए .
लज्जित हुवे थे अति , तत्र अहंकार से .
यमी साक्ष्य लिए हुवे , सहस्त्रबाहु द्वंद्व के ,
आप वहाँ बच गए , सुमाली सौभाग्य से .
कौतुक में ही बालि ने ,चाँप लिया भुज तले,
छोड़ दिया विप्र मान , पुलस्त्य प्रभाव से .
स्वामी ! भवत् विरद से , पूर्व से ही भिज्ञ हूँ मैं ,
प्रीति हो तो और कहूँ ? आप के आदेश से .
विचलित दशग्रीव , इंगित कर तर्जनी ,
कहता है वानर से ,कपि कटुभाषी है.
कई-कई रण कर , देव-नर-नाग जीते ,
पर तुझे दृष्ट नहीं , अति बकवादी है.
अनुभूत सत्य यह , सुकृति है रक्ष-राज ,
अंध नेत्र सुहाये ना ,अति ही विरोधी है.
जिसे चाहा खुद आया , नहिं आया जीत लिया,
मेरा कहा कौन टाले? रावण यशस्वी है.
स्वयं का विरद गान , तुच्छ जन करते हैं,
अन्य जन यश कहें , सम्मान वो मानिए.
व्यक्तिनिष्ठ हो कर के, लोक का दमन कर ,
तुच्छ काम साधते हैं , कुराज वो मानिए.
शोषण-दमन कर , हरण-दलन कर ,
तन्त्र चाहे कैसा भी हो ,ध्वस्त ही वो मानिए.
स्वामी यह अहंकार , पंक सम लीलता है ,
प्रभु-द्रोही संस्कृति को ,कुत्सा ही वो मानिए .
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