कपि श्री विनम्र बन , कहते दशग्रीव से ,
स्वामी ! मैं हूँ शाखामृग , शुद्ध वनवासी हूँ.
चतुष्पद भूत मात्र , भ्रमण स्वभाव मम ,
आगत स्वभाव वश , पक्ष से प्रवासी हूँ .
पत्र - पुष्प मैं चर्वित , प्रताड़ित राक्षसों से ,
आत्म-रक्षार्थ रक्ष हत , मैं निरपराधी हूँ .
राजा मानूं राम मात्र , शेष सब दास मात्र ,
प्राण-सूत्र राम-हस्त , पूर्ण मैं विश्वासी हूँ .
दशानन कहता है ,वानर तू अपराधी ,
अति अपराध कर , हमें धमकाता है .
अशोक को उजाड़ के , सुपाट दिया शव से ,
राज-रक्त से सना तू ,आँखें दिखलाता है .
लंका और रावण से , कौन परिचित नहीं ?
मेरे गृह में मुझ को , दास बतलाता है.
सिंहासन से उतर , विचलित दशग्रीव ,
लगता है जैसे फणि , फुत्कार करता है.
कपि दृढ हो के कहे , स्वामी अब सुनिये ,
अपराधी मुझे कहें , स्वयं को ही मानिए .
बिना अधिकार के ही , सीता हर लाये आप ,
मूल्य हीन काज में , कुहर्ता ही मानिए .
देव नर नाग सब , लूट -लूट कर बैठे ,
कुत्सित कार्य के लिए , तस्कर ही मानिए .
क्रोध-हिंसा-अहंकार , वशीभूत मन के हो,
मार दिए मूल्य सारे , दास तो ही मानिए.
स्वामी ! मैं हूँ शाखामृग , शुद्ध वनवासी हूँ.
चतुष्पद भूत मात्र , भ्रमण स्वभाव मम ,
आगत स्वभाव वश , पक्ष से प्रवासी हूँ .
पत्र - पुष्प मैं चर्वित , प्रताड़ित राक्षसों से ,
आत्म-रक्षार्थ रक्ष हत , मैं निरपराधी हूँ .
राजा मानूं राम मात्र , शेष सब दास मात्र ,
प्राण-सूत्र राम-हस्त , पूर्ण मैं विश्वासी हूँ .
दशानन कहता है ,वानर तू अपराधी ,
अति अपराध कर , हमें धमकाता है .
अशोक को उजाड़ के , सुपाट दिया शव से ,
राज-रक्त से सना तू ,आँखें दिखलाता है .
लंका और रावण से , कौन परिचित नहीं ?
मेरे गृह में मुझ को , दास बतलाता है.
सिंहासन से उतर , विचलित दशग्रीव ,
लगता है जैसे फणि , फुत्कार करता है.
कपि दृढ हो के कहे , स्वामी अब सुनिये ,
अपराधी मुझे कहें , स्वयं को ही मानिए .
बिना अधिकार के ही , सीता हर लाये आप ,
मूल्य हीन काज में , कुहर्ता ही मानिए .
देव नर नाग सब , लूट -लूट कर बैठे ,
कुत्सित कार्य के लिए , तस्कर ही मानिए .
क्रोध-हिंसा-अहंकार , वशीभूत मन के हो,
मार दिए मूल्य सारे , दास तो ही मानिए.
No comments:
Post a Comment