Thursday, 1 December 2011

देखते हैं तत्र कपि , कुछ भिन्न भाग एक,
                   निर्मल आलोक वहाँ , सब कुछ शांत है.
विरुद्ध स्वभाव भूत , चर रहें साथ-साथ,
                    सिंह-अजा मित्र सम , द्वेष यत्र सांत है.
श्येन- व्याल साथ रह , अहिंसा भाव रचते ,
                    द्विज वहाँ उल्लसित,कोई नहीं क्लांत है.
सुधा सम नीर बहे, शीतल समीर बहे ,
                    विनीत हैं पञ्च-तत्त्व , कौन कहाँ भ्रांत है.


राम -चर वहाँ गये , अद्वितीय आकर्षण  ,                  
                      मंद-मंद वायु बहे , क्षीण जल-धार है .
शाख-शाख झूमती है , पत्र करे झरमर ,
                     रवि किरणे नाचतीं , सघन  गुंजार है .
सरल सरस ध्वनि , श्रुति को संपन्न करे,
                     तत क्षण आये शत, मन में विचार हैं.
ओह ! राम रमापति , निर्जन इस प्रांत में,
                     राम-राम मन्त्र गूंजे,कैसा व्यवहार है.
                    

सुरोहित सुवृक्ष से , आंजनेय देखते हैं ,
                   सुमुखी - सुमंगला वो , आम्र तले है रोती . 
अति क्षीण तन हुआ, शिथिल है गात्र  हुआ ,
                   बल - हीन वाणी ले के , राम को पुकारती.
भुज द्वय घुटनों पे , सर धर लपेटती  ,
                   जीर्ण हुई साडी खींच,खुद को वो ढांकती.
सज्जा हीन वेणी एक , प्रसरित भाल -बिंदु ,
                   घायल कपोती सम ,प्राण को वो धारती.

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