Wednesday, 28 November 2012

देख सगाई


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लाल फूल पे ,
जब तितली डोले,
देख सगाई
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दौड़ के पानी ,
सागर में पहुंचा,
देख मिताई .
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जड़ें ईख की ,
है खेत में गहरी,
देख ढिटाई .
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पके पत्र हैं,
उड़ते चिड़िया से,
देख विदाई.
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नव कोंपल,
हर शाख पे झूमे,
देख बधाई.
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Monday, 26 November 2012


सुग्रीव के सहचर , वानर उद्दीप्त हो के  ,
              किलक लगाते कहे ,अभी खींच देते हैं.
कपिराज कथन तो ,आप ने उचित किया,
              निशाचर छलिया है ,अभी चीर देते हैं .
धूर्त यह निशाचर , मूल रूप लिए हुए ,
              अन्य कोई रूप धरे , अभी धर देते हैं .
प्रभु राम से ये मिल ,पहुंचाए क्षति कोई ,
              पूर्व उस के ही इसे , अभी चांप देते हैं .

देखा सुग्रीव ने तब , वानर हैं उग्र सब,
              शांत कर कहते हैं , सब ध्यान दीजिए.
राम की शरण हेतु , आगत है निशाचर ,
              आगमन के कारण ,खोज लेने दीजिए.
विष के शमन हेतु ,विष ही जरूरी होता,
              ग्रहण से पूर्व उसे , शोध लेने दीजिए .
राघव से मिल कर , करे हम मंत्रणा को,
              तब तक इन पर , दृष्टि रख लीजिए.

सुग्रीव के इंगित से , धरा पर विभीषण ,
              विभीषण देह लगे , नीलमणि नग है.
वानर सुभट तभी , घेर लेते विभीषण ,
              वानर सुवर्णी लगे , स्वर्ण-रश्मि-रथ है.
सुग्रीव हुंकार कर , बढ़ चले राम ओर,
              तब कपिराज लगे , गति प्राण-पुंज है.
शुद्ध शुची शैल पर , सीतापति राम बैठे,
              लक्ष्मण के सह लगे , अमृत कलश है.




Saturday, 24 November 2012

पसरी दुर्वा,

पसरी दुर्वा,
हरित-पीत वर्ण,
जैसे जीवन .
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फैली दुर्वा ,
रेशा-रेशा फैलाए,
ऐसा जीवन.
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पौर-पौर पे,
दुर्वा से दुर्वा फैली,
जागा जीवन.
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शीर्ष जुकाए ,
सब सहती दुर्वा,
सादा जीवन .
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उठी धरा से ,
दुर्वा पूजा में आई,
प्यारा जीवन .
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-त्रिलोकी मोहन पुरोहित

भूख बोलती .



कल था पेड़ ,
आज ठूंठ बना है ,
भूख बोलती .
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धानी धरती ,
बंजर बन बैठी ,
भूख मारती.
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एक खेत था ,
आज डांग पड़ी है ,
भूख बांटती.
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गलबहियां ,
अब स्वप्न हुई है,
भूख भांजती .
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राजहंस थे,
सब आज भिखारी ,
भूख बनाती.
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मुक्ति मिलती .


आज के हाइकू -
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खिड़की खोली ,
है धूप गुनगुनी ,
मुक्ति मिलती .
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शाखा हिलती ,
नर्म धूप झूलती ,
मुक्ति खिलती .
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धूप दौड़ती,
लहरों पर चढ़ ,
मुक्ति बढ़ती.
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गर्द फैल के ,
नर्म धूप रोकती,
मुक्ति मरती .
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पौर-पौर पे ,
धूप के छोने बैठे,
मुक्ति सजती.
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                         - त्रिलोकी मोहन पुरोहित.

Wednesday, 21 November 2012

विभीषण का सुग्रीव को राम की शरण हेतु  निवेदन -
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सागर के कूल पर , सुग्रीव विचरते हैं ,
               देख कर विभीषण , संशय हो जाता है.
कर-कर इंगित वो , कहते हैं देखो भट ,
               यह कोई निशाचर , भेद लेने आया है .
आरोहित नभ में है , साधन सम्पन्न यह ,
               सहचर लिए हुए , छल रूप पाया है .
नाग सम अस्त्र लिए, क्षपा सम शस्त्र लिए ,
               नग सम देह लिए , अरि सम आया है.

सुग्रीव के कहते ही , विभीषण बोल पड़े ,
               हे सुमंत ! सुग्रीव मैं , रावण अनुज हूँ.
हीनबुद्धि अहंकारी , सीता का हरणकर्ता ,
               अघचारी रावण से , सदैव पीड़ित हूँ.
शतवार कह दिया , सीता सौंपने के लिए ,
               रामारि वो सुने नहीं , रावण से त्रस्त हूँ .
धन धरा सुत हीन , विभीषण राज्य हीन ,
               राघव की शरण में , आया हुआ जन हूँ.

राम से विमुख नहीं ,अरि मुझे मानो नहीं ,
               राम से जा कर कहें , सत्य हेतु आया हूँ.
रावण की वाटिका में , सीता का घुटन देखा ,
               सीता के घुटन से मैं , त्रास लिये आया हूँ .
रावण ने राज-द्रोही , मुझ को सभा में कह ,
               संदेह के बंध बांधे ,  शरण में आया हूँ.
दशानन पविकर्ण , सुने नहीं सत्य कभी ,
               सत्य सुन अरि हुआ , प्राण लिये आया हूँ .





Monday, 19 November 2012


रावण को भ्रष्ट मान , कह चले विभीषण ,
               निशाचर-नृप आप , सरल स्वभाव नहीं .
कह-कह थक गया , नीति की धवल बातें,
               लगता है नीति कभी,आप को स्वीकार नहीं .
निशाचर हित हेतु , आप के कल्याण हेतु,
               धर्म-युक्त बातें कही , आप में सुधार नहीं .
लंका सदा फले-फूले , यही भाव भरे कहा,
               राज-द्रोह कह दिया ,उचित व्यवहार नहीं .

तात सम अग्रज हो , तनय सा अनुज हूँ ,
               क्षमा करें अब तात , श्रद्धाभाव जानिए .
सत्ता और शासन का, मोह नहीं पाला कभी,
               लंकापति बने रहें , सिंहासन रखिए .
मधुर कथन सब , कर रहे लोग अत्र ,
               मित्र व अमित्र कौन , आप पहचानिए.
यत्र सीता-राम प्रति , होता द्रोह मुखरित,
               राम भक्त रुके कैसे , सुखकर रहिए .

सिंह-गर्जना के सह , विभीषण तत क्षण,
               रावण को नम कर , नभ चढ़े जाते हैं .
सर्व जन मंगल के , सुन्दर सुपात्र बने,
               क्षण एक ठहर के , कहे चले जाते हैं.
अग्र विभीषण चले , पश्च अनुचर बढे,
               मानो यज्ञ-धूम घन , उड़े चले जाते हैं.
जल भरे नेत्र लिये , अंतर में राम-नाम,
               राम से मिलन हेतु ,उस पार जाते हैं.


Sunday, 18 November 2012

ममता बांधें .


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धूल उडाती ,
गायें घर को लौटी,
ममता बांधें .
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भरी घास में ,
शेर पसर जाता,
बकरी मारी .
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नीला नभ है ,
श्येन ऊपर-ऊपर,
चिड़िया काँपे .
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कई दिनों से ,
नभ में चन्दा आया ,
थी पडौसन .
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हवा चली तो ,
स्वर बंसी बहता ,
थी विरहिण .
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Saturday, 17 November 2012

रोया था नभ .


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ओस की बूंदे ,
पूरी रात गिरी थी ,
रोया था नभ .
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नभ गरजा ,
धरती हिलती है,
मांगे हिसाब .
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हवा चली है ,
खिड़की हिलती है,
होगा मन का .
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लाल नभ से,
सरोवर भी लाल ,
तू क्यों न लाल .
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दायें से बाएं,
उड़ गया परिंदा,
तू ना बदला .
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Monday, 12 November 2012

सर्वस्व तुम पर छिड़क दूंगा


 अंधकारा में कौन बैठा ,
          सुबकता है
     ज़रा मेरे पास आओ ,
आलोक तुम पर छिड़क दूंगा.

जानता हूँ बहुत सारे घाव तेरे .
मानता हूँ बहुत सारे  दर्द  तेरे.
      दर्द ढोता कौन बैठा ,
            सुबकता है,
      ज़रा मेरे पास आओ.
कोमल हृदय में तेरी जगह है.
नेहघट तुम पर छिड़क दूंगा .

देखता हूँ बहुत तेरी है घुटन .
लेखता हूँ बहुत तेरी है टुटन.
    छटपटाता कौन बैठा ,
            सुबकता है,
     ज़रा मेरे पास आओ.
मेरी साधना में आराध्य सा तू.
प्राणघट तुम पर छिड़क दूंगा .

सुन रहा हूँ सांसों के सरगम तेरे.
सुन रहा हूँ आहों के  नर्तन  तेरे .
     व्यथित होता कौन बैठा,
              सुबकता है,
       ज़रा मेरे पास आओ.
अब अकेला तू नहीं है मान ले .
सर्वस्व  तुम पर छिड़क दूंगा

आज के हाईकू- लड़ते योद्धा.


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काली रातों में,
झिलमिलाते दीप,
लड़ते योद्धा.

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बिखरी गई ,
आँगन में किरणें,
बनी रंगोली.

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स्वर्ण आभ से ,
झिलमिल धरती,
वधू सजी है.

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नन्हें दीपक,
झिलमिल अवली,
नक्षत्र सजे.

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काला पन्ना,
खचित स्वर्ण रेख,
बनी दिवाली.

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Sunday, 11 November 2012

आज के हाइकू -हुई दिवाली .


आज के हाइकू -
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शक्ति केआगे
हार गये असुर ,
हुई दिवाली
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शस्य श्यामला ,
धानी चूनर धारी,
हुई दिवाली.
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राम जीत के ,
जब घर पहुंचे ,
हुई दिवाली .
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रोग-शोक से ,
जब धरा मुक्त थी,
हुई दिवाली.
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मिल के रोके,
शोषण के पहिये,
हुई दिवाली.
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बंधन तोड़,
रचा नव सृजन,
हुई दिवाली.
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गलबहियां,
हर हाथ ने बांधी,
हुई दिवाली.
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Saturday, 10 November 2012

आज के हाइकू - शुभ दिवाली .



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झिलमिलाती ,
वह दीप शिखा सी,
हुई दिवाली .
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वह मुस्काई ,
काली रातें बदली ,
सजी दिवाली .
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फूलझड़ी सी ,
जब साडी दमकी,
कही दिवाली .
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लिए थाल में ,
ले दिवले चलती ,
चली दिवाली.
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ऊपर नीचे,
वो दिवले धरती ,
कहे दिवाली .
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सब से मिल,
मीठे मुंह से बोले,
शुभ दिवाली.
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देहरी-द्वारे,
घर-आँगन चाहे ,
पूर दिवाली .
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Friday, 9 November 2012

आज के हाइकू -प्यार बड़ा था.




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वह नम्र था ,
दुहरा लगता था ,
कद बड़ा था .
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अपना कौर ,
साथ वाले को देता ,
संत बड़ा था .
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बोझ पिता का ,
हँस कर ढोता था,
बेटा बड़ा था.
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बिन सोचे ही,
तज गया वो प्राण,
प्यार बड़ा था.
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सब छोटे थे ,
भूख-प्यास व नींद,
लक्ष्य बड़ा था.
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सबसे लड़ा ,
परवाह नहीं की ,
यार बड़ा था.
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टिका दी पीठ,
आश्रय जो मिला था,
पथ बड़ा था.
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थम गए पाँव ,
देख कर मंजर ,
दर्द बड़ा था.
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Thursday, 8 November 2012

मेरे प्यार का , इम्तिहान न लो .


मेरे प्यार का ,
इम्तिहान न लो ,
चलो भी यहाँ से ,
कुछ देर घूम आयें,
और
छोड़ दें ,वे मील के
पत्थर सी जमी हुई
हमारी दुरभिसंधियाँ .

यह ठीक नहीं किया ,
रो-रो कर बहा दिया ,
सितारों सी चमकती ,
आँखों का अंजन.
खुल कर बिखर गयी,
मसृण काली केश राशि ,
जैसे बिखर चली हो ,
गाँव पहुँचाने वाली ,
वक्रिल पगडण्डीयाँ ,
उन्हीं  में उलझ कर ,
मैं तो रह गया हूँ ,
चलो कहीं चलते हैं ,
जहां छूट जाए उलझन ,
मिले कोई ठोर-ठिकाना.



तुम्हारे प्रश्न हमेशा ,
बहुत ही छोटे होते हैं ,
पर वे सब के सब बहुत
जटिल हुआ करते हैं ,
जैसे उलझे हुए ,
लाल-पीले गुडिया के बाल,
वे उत्तर से पहले ही ,
मेरे मुंह में गुल जाते हैं,
छोड़ जाते हैं मधुर स्वाद.
मैं मुग्ध हो कर तुम को ,
बस देखता ही रह जाता हूँ ,
और ,
तुम उसे मान लेती हो ,
अपनी ही अवमानना ,
चलो भी अब ,
तुम्हारे सभी प्रश्नों का हल ,
कहीं एकांत में बताता हूँ ,
यहाँ बहुत भीड़-भक्का है,
तुम बहुत शर्म कोगी.

हमारी दुनिया में ,
नित होते रहते हैं ,
छोटे-बड़े नाटकीय खेल,
हम हैं कि ,
हर रूपक में.
जोर-शोर से अपनी भूमिका,
कस कर खेलते हैं ,
लेकिन,
हर रूपक का अंत ,
बहुत त्रासद होता है ,
और ,
सँभलने से पहले ही,
नव भूमिका में हमें ,
धकेल दिया जाता है ,
अंत में,
पुनरावृत होता है ,
फल के रूप में त्रासद अंत ,
चलो भी कहीं अलग ,
जहां हम ही रचें कोई ,
छोटा सा मधुर  रूपक ,
त्रासद अंत से विलग .

आज के हाइकू - मन पतंग



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चढ़ती जाये ,
आशा की डोर लिये,
मन पतंग .

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होती नवीन ,
आशा के बाजारों में ,
मन पतंग .

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खूब चिढ़ाती ,
इठलाती दिखती ,
मन पतंग .

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कट जाती है ,
खुले पेंच लगाती,
मन पतंग.

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घर के आगे ,
वे धरी रह गयी ,
मन पतंग .

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समय लिये ,
चिंदी हुई रखी है,
मन पतंग.

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आज के हाइकू - रब जो मिला .




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देखा उस को  ,
हुआ आनन लाल ,
कमल बना .

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निरा बांस था,
जब से होंठ चढ़ा ,
बंसी ही जाना .

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कोरा कागज़
ढाई आखर ले के ,
दिल पे आया.

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तुम जो आये ,
भरी दुपहरी में ,
सावन आया .

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सब दे कर ,
सब कुछ पा लिया ,
रब जो मिला .

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Tuesday, 6 November 2012

आज के हाइकू- यही प्यार है.



धरा जली तो,
बादल गर्जे-वर्षे,
यही प्यार है.

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आग कहीं पे ,
है जलन कहीं पे,
यही प्यार है.

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इक जाता है ,
इक द्वार पे रोये,
यही प्यार है.

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आँखें बरसी,
तब दामन भीगा,
यही प्यार है.

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उस ने सोचा ,
उसे हिचकी आयी,
यही प्यार है.

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Sunday, 4 November 2012

आज के हाइकू - संभव कैसे ?



परिधि ले के ,
है प्रिय से मिलना ,
संभव कैसे ?
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लगा अडंगा ,
है चाह बढ़त की,
संभव कैसे ?
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कटु वक्ता को,
हो सुगीत श्रवण,
संभव कैसे ?
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प्रतिभा-पानी,
तरल-सरल ना,
संभव कैसे ?
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आग लिए तू ,
अब सो सकता है ,
संभव कैसे ?
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Thursday, 1 November 2012

रोटी भी कच्ची मिलेगी तुम कहो .



लिजलिजी बातें न तो अब तुम कहो.
कुछ  खरी  बातें  सुनें  जब तुम कहो.

कुछ  खतों को छोड़ कर वह चल पड़े .
उन  खतों की बात को अब तुम कहो .

नित  नये  नाटक यहाँ पर दिख  रहे .
कौन  इन  का  है  नियंता  तुम कहो .

जब  तुझे बोसा दिया तब तुम खिले .
पलट  के देखे  न  वे क्यों  तुम  कहो.

कुछ  लुटेरे  लूट  के अब   बस  गये.
अब  ज़रा  उन के ठिकाने  तुम कहो .

खबर  देने   का  भरोसा   कर   गये .
वह  कहाँ  सोये  पड़े अब  तुम  कहो.

आग-इंधन  भी  यहाँ  सीमित  हुए .
रोटी भी कच्ची  मिलेगी तुम  कहो .

करवा चौथ पर हाइकू



( १ )
चाँद सलोना ,
चमक गगन में ,
घर भी आया .
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( २ )
वह मुस्काई ,
नभ खिली चांदनी ,
घर मुस्काया .
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( ३ )
भाल पे बिंदु ,
देख चाँद लजाया ,
घर हर्षाया.
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( ४ )
चन्दा-मुख पे ,
लट्टू नन्द किशोर ,
घर पे आया.
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( ५ )
चाँद-चांदनी ,
जुग-जुग रहियो ,
घर ने गाया.
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संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...