विभीषण का सुग्रीव को राम की शरण हेतु निवेदन -
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सागर के कूल पर , सुग्रीव विचरते हैं ,
देख कर विभीषण , संशय हो जाता है.
कर-कर इंगित वो , कहते हैं देखो भट ,
यह कोई निशाचर , भेद लेने आया है .
आरोहित नभ में है , साधन सम्पन्न यह ,
सहचर लिए हुए , छल रूप पाया है .
नाग सम अस्त्र लिए, क्षपा सम शस्त्र लिए ,
नग सम देह लिए , अरि सम आया है.
सुग्रीव के कहते ही , विभीषण बोल पड़े ,
हे सुमंत ! सुग्रीव मैं , रावण अनुज हूँ.
हीनबुद्धि अहंकारी , सीता का हरणकर्ता ,
अघचारी रावण से , सदैव पीड़ित हूँ.
शतवार कह दिया , सीता सौंपने के लिए ,
रामारि वो सुने नहीं , रावण से त्रस्त हूँ .
धन धरा सुत हीन , विभीषण राज्य हीन ,
राघव की शरण में , आया हुआ जन हूँ.
राम से विमुख नहीं ,अरि मुझे मानो नहीं ,
राम से जा कर कहें , सत्य हेतु आया हूँ.
रावण की वाटिका में , सीता का घुटन देखा ,
सीता के घुटन से मैं , त्रास लिये आया हूँ .
रावण ने राज-द्रोही , मुझ को सभा में कह ,
संदेह के बंध बांधे , शरण में आया हूँ.
दशानन पविकर्ण , सुने नहीं सत्य कभी ,
सत्य सुन अरि हुआ , प्राण लिये आया हूँ .