रावण को भ्रष्ट मान , कह चले विभीषण ,
निशाचर-नृप आप , सरल स्वभाव नहीं .
कह-कह थक गया , नीति की धवल बातें,
लगता है नीति कभी,आप को स्वीकार नहीं .
निशाचर हित हेतु , आप के कल्याण हेतु,
धर्म-युक्त बातें कही , आप में सुधार नहीं .
लंका सदा फले-फूले , यही भाव भरे कहा,
राज-द्रोह कह दिया ,उचित व्यवहार नहीं .
तात सम अग्रज हो , तनय सा अनुज हूँ ,
क्षमा करें अब तात , श्रद्धाभाव जानिए .
सत्ता और शासन का, मोह नहीं पाला कभी,
लंकापति बने रहें , सिंहासन रखिए .
मधुर कथन सब , कर रहे लोग अत्र ,
मित्र व अमित्र कौन , आप पहचानिए.
यत्र सीता-राम प्रति , होता द्रोह मुखरित,
राम भक्त रुके कैसे , सुखकर रहिए .
सिंह-गर्जना के सह , विभीषण तत क्षण,
रावण को नम कर , नभ चढ़े जाते हैं .
सर्व जन मंगल के , सुन्दर सुपात्र बने,
क्षण एक ठहर के , कहे चले जाते हैं.
अग्र विभीषण चले , पश्च अनुचर बढे,
मानो यज्ञ-धूम घन , उड़े चले जाते हैं.
जल भरे नेत्र लिये , अंतर में राम-नाम,
राम से मिलन हेतु ,उस पार जाते हैं.
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