प्रेम जगत को सार है , बाकी सब झंझाल .
भर-भर झोली ले चलो, बाकी कूप हि डाल.
भर-भर प्याला प्रेम का,अथक करूं मैं पान.
बाकि रस-रंग व्यर्थ है , यह अंतर को ज्ञान .
प्रेम-दीप झक-झक जले, घर में भरे उजास.
वहां कान्ह कौतुक करे , राधा करे विलास .
प्रेम - पुष्प विकसे नहीं , वे घर हुए उजाड़ .
पल-पल निकले कष्ट में , जीवन बने पहाड़ .
प्रेम - निमंत्रण भेजता , पढ़ ली जो रे राम.
नाव नदी में डोलती , सरे न तुम बिन काम.
प्रेम-पंथ अद्भुत बहुत ,निस-दिन चलतो जाय.
चले तु सांसा चालती , रुकते ही मरि जाय.
श्याम तेरे हि द्वार पर , लगी प्रेम की मार .
घायल कुरंग सम दशा ,सुध लीजो करतार .
निबल सबल हो प्रेम ले , कौतुक करतो जाय.
केवल सांसा - डोर पर , मछली चढ़े पहाड़ .
झीनी डोरी प्रेम की , देखत ही मन भाय .
छूते ही सुलिपट चले , छोडो तो उलझाय.
प्रेम शहद अति चिपचिपो , भ्रमर जन मति मंद.
अधिक चाह के भाव में , करे जीव को फंद.
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