Tuesday, 27 March 2012



प्रेम जगत को सार है , बाकी सब झंझाल .
भर-भर झोली ले चलो, बाकी कूप हि डाल.

भर-भर प्याला प्रेम का,अथक करूं मैं पान.
बाकि रस-रंग व्यर्थ है , यह अंतर को ज्ञान .

प्रेम-दीप झक-झक जले, घर में भरे उजास.
वहां कान्ह कौतुक करे , राधा करे विलास .

प्रेम - पुष्प विकसे नहीं , वे घर हुए उजाड़ .
पल-पल निकले कष्ट में , जीवन बने पहाड़ .

प्रेम - निमंत्रण भेजता  , पढ़ ली जो रे राम.
नाव नदी में डोलती , सरे न तुम बिन काम.

प्रेम-पंथ अद्भुत बहुत ,निस-दिन चलतो जाय.
चले  तु  सांसा  चालती , रुकते ही मरि  जाय.

श्याम  तेरे  हि  द्वार  पर , लगी  प्रेम  की मार .
घायल  कुरंग  सम  दशा ,सुध  लीजो करतार .

निबल सबल हो प्रेम ले , कौतुक  करतो जाय.
केवल  सांसा - डोर  पर  , मछली  चढ़े  पहाड़ .

झीनी  डोरी  प्रेम  की , देखत  ही   मन भाय .
छूते  ही  सुलिपट  चले , छोडो  तो  उलझाय.

प्रेम शहद अति चिपचिपो , भ्रमर जन मति मंद.
अधिक  चाह  के  भाव  में , करे  जीव  को  फंद.

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