धूप ! चली आओ
धूप ! चली आओ ,
अब खुल गयी है ,
सालों से बंद ,
खिड़कियाँ .
धूप ! आना ,
पर ,
अहिस्ता-अहिस्ता आना .
सालों से नहीं मिली हो ,
एकदम से आओगी ,
चुंधिया जायेंगी ,
मेरी आँखें ,
और ,
मैं देखने का सुख ,
भला खोना नहीं चाहता ,
हम दोनों ,मिल कर ,
चुके क्षण , ताजा करेंगे,
साफ कर दी हैं ,
झिर्रियाँ.
सुन रहा हूँ ,
बाहर का शोर ,चिल्लपों,
और चीख पुकार .
तरस गयी हैं ,
ये आँखें .
देखना चाहती है ,
मिटटी-सने बच्चे ,
नंग-धडंग बच्चे ,
जीभ निकाले ,
विकृत मुखाकृति करते ,
मेरे कक्ष के द्वार को ,
थपथपाते बच्चे .
धूप ! चली आना ,
हो जायेंगे कुछ हलके ,
सुन कर इन उद्दंड ,
बच्चों की निश्छल ,
किलकारियां .
मेरी सलोनी सहचरी,
धूप !चली आना ,
रोज सुनता हूँ ,
इस बंद कमरे में ,
झुग्गी-झोंपड़ियों से ,
आता हुआ रुदन .
जहां ,
रोज कूंदी जाती है,
पियक्कड़ आदमियों से ,
कंकाल सी औरतें .
समझना चाहता हूँ-
विलाप करती ,
कराहती , सुबकती ,
अपने भाग्य को कोसती ,
लाचार सी ,भूखी ,
औरतों की ,दयनीय
सिसकियाँ .
धूप ! साथ देना होगा ,
मेरी खिडकियों में बेठ,
करेंगे थोड़ी चर्चा ,
क्योंकि ,
तुम श्वेत को श्वेत ,
और ,
श्याम को श्याम ,
खरा -खरा बताती हो .
मैंने सूनी है ,
बंद कमरे में आती ,
बाहर से , फुसफुसाहट .
ज़रा साफ करेंगे ,
श्वेत आभामंडित ,
पूज्य मार्गदर्शकों की ,
अभिसारण की कामातुर ,
एवं विलासी ,
प्रवृत्तियाँ .
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