Thursday, 29 March 2012

राम उद्बोधन  एवं राम - सेना का प्रस्थान -


वनवासी बन्धु सब , मया सह मध्य चल,
                     प्रयाण गीत गान से , वाहिनी को गति दें.
पञ्च तत्त्व देख कर , प्रकृति समझ कर ,
                     ताप-घात जान कर , वाहिनी को यति दें.
फल-फूल-मूल के , अन्न और औषध के ,
                     भण्डार - प्रबंध कर , वाहिनी को पुष्टि दें.
यत्र-तत्र फैल कर , घायल सम्हाल कर ,
                     निदान - उपचार से , वाहिनी को वृद्धि दे.


सुग्रीव सन्मुख हो के , कहते हैं सीतापति ,
                      रुज-ग्रस्त वृद्ध वीर , यहीं रुक जायेंगे .
पथ्य-लाभ लेते हुए , जनपद-बाल देखें ,
                       देश हित भाव भर , यहीं सेवा पायेंगे .
वानर प्रमादी बहु , चंचल है चित्त वाही ,
                       प्रमाद को हम कभी , सह नहीं पायेंगे.
मिलेंगे नगर-ग्राम , वन-उपवन-ताल ,
                       बिना भ्रष्ट किये सब , आगे बढ़ पायेंगे.


राम शंख फूंकते हैं , नगाड़ों की गूँज उठी ,
                       वाहिनी के बढ़ते ही,दिक्पाल कांपते हैं.
तासे और ढोल बजे , तुरही ने तान मारी ,
                       रज - कण घन बन , नभ भर जाते हैं .
चंग और झांझ बजे , बिगुल भी बज पड़ी ,
                       सीना ताने वीर देख , नग डोल जाते हैं.
उदधि उबल जाए , धक - धक धरा कांपे , 
                         राम जय घोषकर , वीर बढ़ जाते हैं.

No comments:

Post a Comment

संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...