भीड़ के रेले में ,
एक चेहरा खोजना ,
बहुत मुश्किल होता है ,
जैसे भूसे के ढेर में,
सूई का खोजना.
कितने सारे चेहरे,
आते -जाते चेहरे ,
उठते-गिरते चेहरे,
श्यामल-उज्ज्वल चेहरे,
खुले-खुले चेहरे ,
मुखौटे चढ़ाये चेहरे ,
कैसे-कैसे चेहरे ,
इतने सब में से ,
अपनी ही तलाश ,
बहुत मुश्किल होती है,
चेहरा ?
हाँ , वह चेहरा,
जिस को पा कर लगे ,
हाँ ,इसी की थी चाह ,
इसी की थी तलाश .
इसी खोज के सिलसिले में ,
कई बार खुद को ही ,
गुम होता पाते हैं,
तब उस भीड़ में ,
स्वयं से स्वयं की तलाश ,
कितनी होती है त्रासद,
तब उस चलती हुई ,
भीड़ में से ,
किसी एक को देख
बुदबुदाते हैं -
अरे ! मैं तो इस के जैसा ,
यह बोध ,
बहुत त्रासद , बहुत त्रासद .
चाहता हूँ इस भीड़ में,
मेरा भी अस्तित्व,
मेरी भी अक्षुण पहचान ,
चाहता हूँ स्वयं को ,
करना पूर्ण अभिव्यक्त,
इसीलिए तो चाहता हूँ ,
इस भीड़ में मुझ को मिले ,
अलग चेहरा ,
अलग पहचान
जो मुझ को बता सके -
इस भीड़ से मैं हूँ ,
एक अलग व्यक्तित्व ,
तब वह बहुत ही ,
सुखद होगा, सुखद होगा.
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द .
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