सुबह से लेकर सायं तक,
तुम साधते हो निशाना ,
ले कर इच्छाओं की गुलेल ,
और ,
करते रहते हो ,
किसी व्याध की तरह शिकार .
नित्य ही अपनी झोली को ,
भरते हो अपने अभीष्ट से ,
और छोटे से दीपक के तले ,
खोलते हो अपनी झोली ,
टटोलते हो अपनी ,
भयावह उपलब्धियां,
उस समय ,
विस्फारित नयनों से ,
अपनी निर्दयी दृष्टि को ,
फैलाते हो ,
और ,
अपनी अतृप्त तृषा को ,
और अधिक उद्दीप्त करते हो ,
क्योंकि ,
चुल्लू भर खारे पानी से ,
भला किसी की ,
आज दिन तक बुझी है तृषा ,
जो तुम्हारी भी बुझ सकेगी प्यास .
तुम्हारी इच्छाओं की गुलेल ,
कब चलना होगी बंद ,
शायद तुम को नहीं मालूम ,
लेकिन ,
प्यास बुझाने की जग जाए होंश,
तब मेरे पास जरूर आना ,
तब तुम्हें ले चलूँगा ,
बाहर से अन्दर की यात्रा पर ,
और ,
फिर लौटा कर ले आउंगा ,
अन्दर से बाहर की यात्रा पर .
हाँ ,
यही एक विकल्प है ,
तुम्हारी अथक तृषा की शांति का ,
क्योंकि ,
तभी तुम्हारे और अन्य में ,
बैठा हुआ ,
अजदहे सा द्वंद्व होगा समाप्त ,
इच्छाओं की गुलेल होगी चुप,
और ,
बहेगी मधुर पीयूष की धार
तुम्हारी अथक तृषा होगी शांत .
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द .
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