अपनी ही तलाश ,
बहुत मुश्किल ,
कार्य होता है ,
खड़े पर्वत की ,
चढ़ाई का जैसे ,
दुष्कर भार होता है.
यह तलाश
नित्य करना,
हमारी नियति जैसा ,
या,
यों मान लें ,
हमारी दिनचर्या की ,
अनुक्रमणिका के
मुख्य चरण जैसा ,
जिस के अथ और इति,
के फैलाव में है ,
परं अर्थ जैसा.
यह तलाश इसलिए कि,
मुझ को मिला है ,
प्रकृति से -
रंग,रूप , आकार ,वर्ण ,
ये सब भिन्न है,
ह्रदय, बुद्धि और चिन्तना,
ये सब भी सभी से भिन्न हैं
और,
भिन्नता ही पहचान है ,
उस ने सजाई है ,
अपनी अल्पना ,
कुछ रंगीन करने के लिए ,
कुछ विस्तार देने के लिए ,
इसीलिए सब के अपने ,
अलग वर्ण और अपने चिह्न हैं.
मैं अलग -थलग सा ,
चल रहा हूँ तो चल रहा हूँ ,
यह बहुत जरूरी है ,
अपनी ही तलाश के लिए.
मिल कर सभी में ,
गड्ड-मड्ड होना ,
सम्यक है नहीं,
इस से तो ,
उस प्रकृति की रचित,
अल्पना बिगड़ ही जायेगी.
मैं अलग रह कर ,
अल्पना का अंश बनना
सम्यक मानता हूँ .
हाँ यह सही है -
मैं पूर्ण अल्पना,
कभी न हो सकूंगा ,
पर इस बात का ,
मुझ में परितोष होगा,
अल्पना को कभी ,
भ्रष्ट तो न कर सकूंगा .
कितना कष्टप्रद होता है,
व्यक्ति भूल जाए अपनी तलाश ,
या ,
भीड़ में खो जाए भीड़ बन कर ,
जैसे किसी काव्य-संकलन में ,
किसी छोटी कविता का ,
संकलन के बोझ में ही ,
दबे रहना और कुचलना ,
यह बहुत त्रासद,बहुत त्रासद
या,
हांशिये पर चले जाना
यह बहुत भयावह,बहुत भयावह.
सच,
अस्तित्व की तलाश ,
बहुत मधुर है, बहुत मधुर है,
तलाश के लिए जीना,
सहज तो है नहीं ,
पर,
बहुत मधुर है, बहुत मधुर है,
यह भी सृजन का एक स्तर .
बहुत ही सुंदर
ReplyDeleteजी, सुप्रभात एवं सस्नेह वंदन . रचना को आप की दृष्टि मिली , श्रम और चिन्तना सफल हुई. ह्रदय से अनुगृहीत हूँ . धन्यवाद. सस्नेह एवं सादर शुभ कामनाएं
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