तुम हो कि मुझ से
दूर-दूर-दूर ,
और मैं हूँ कि ,
तुम्हारे बिल्कुल,
पास-पास-पास.
तुम्हें नहीं मालूम,
तुम मेरे अन्दर,
और,
मुझ से ही प्रस्फुटित
जैसे सूरज-किरण,
और दोनों के पास,
एक उज्ज्वल प्रकाश.
वह झील , वह पानी ,
और
उन के आपसी रिश्ते,
जो कि करते हैं ,
एक दूसरे को परिभाषित ,
बिल्कुल उन के ही ,
आस-पास और साथ-साथ.
चुप हुई सितार को,
कल मैंने उठा लिया,
जमी हुई गर्द झाड़ने के लिए,
अनायास छू गयी ,
उस के तारो को ,
मेरी अनभ्यस्त हुई अंगुलियाँ,
और
तार थे कि झनझना उठे ,
शायद वे कहने लगे,
ज़रा समझो हमारी भी,
एक लम्बी और मूक प्यास .
बहुत ही अजीब है ना,
हम ही नकारते हैं ,
हमारे अंतर के सत्य को,
सत्य ?
हाँ, हाँ ,वही सत्य ,
तुम्हारे अन्दर , मेरे अन्दर ,
वही तो चीखता है,
घायल आदमी की तरह ,
और कहता है ,
मुझे चाहिए , मुझे चाहिए,
खरे स्वर्ण सा निश्छल विश्वास.
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.
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