मत बतियाओ ,
चुप-चुप-चुप-चुप-चुप
वह सोयी है .
पूरे पखवाड़े ,
वह तड़प-तड़प कर,
जैसे-तैसे श्वासें ले कर,
मछली जैसे ,
मचल-मचल कर ,
अभी-अभी वह शांत हुई है,
शायद सोती है ,
तुम से विनती एक यही है -
उस को सोने दो,
चुप-चुप-चुप-चुप-चुप,
वह सोयी है .
चेहरा उस का ,
कितना दर्द भोग कर,
देखो कैसा म्लान हुआ है,
जैसे रक्त कमल,
मदांधगज से नोचा जा कर,
कांतिहीन निष्प्राण हुआ है ,
उस के घाव बहुत हरे हैं
बहुत थकी है
तुम से विनती एक यही है,
विस्मृत ही रहने दो,
चुप-चुप-चुप-चुप-चुप,
वह सोयी है .
सुनते हो ना ,
मदांधगज की चिंगाडों को,
वह आवारा दिशाहीन है,
आज जरूरत,
मर्यादा और मूल्यों की है ,
देश अभाव से कांतिहीन है,
उस की देह उधड़ गयी है,
बहुत डरी है,
तुम से विनती एक यही है,
ओढ़ दुशाला सोने दो ,
चुप-चुप-चुप-चुप-चुप,
वह सोयी है .
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द .
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