खोजता हूँ तुम को ,
अन्वेषी की तरह,
शब्द में और अर्थ में ,
रूप में और रंग में ,
गंध और स्पर्श में ,
तुम हो कि ,
कभी पूरे नहीं
मिला करते ,
क्योंकि ,
तुम हर एक संस्थिति में,
थोड़े-थोड़े रूप में,
बदल- बदल कर ,
अभिव्यक्त हो .
मैं तुम्हारे पीछे ,
भागा करता हूँ ,
और,
तुम हो कि ,
मेरे साथ खेलते हो ,
लुका-छिपी का खेल .
आखिर कर तुम ,
मुझे इस तरह से ,
छकाने में,
किस तरह के ,
अहं की पूर्ति ,
अनुभव कर पाते हो .
यदि तुम को ,
इस सब में होती है
कोई संतुष्टि ,
तो यह तुम्हारा,
अकरुण व्यावहार ,
अवश्य निरंतर रहे,
लेकिन ,
तुम दयित भाव से,
किसी अवतार की तरह ,
वरद मुद्रा में आओगे,
तब,
तुम मेरी दृष्टि में ,
श्रद्धा-पात्र नहीं रहोगे .
अस्तु,
तुम इसी तरह से ,
मुझ से दूर-दूर ,
भागते रहो, भागते रहो,
और ,
अन्दर-बाहर,
छिपते-छिपाते रहो,
आँख-मिचौनी खेलते रहो,
और मैं ,
तिल-तिल ही सही ,
तुम को खोजता रहूँगा ,
नित नवीन रूप में,
तुम को पाता रहूँगा,
यह सब तुम्हारे,
ऊंचे कद के लिए ,
और मेरी जिजीविषा के लिए,
बहुत ही जरूरी है ,
जैसे जीवन के लिए ,
हवा पानी और धूप ,
बहुत ही जरूरी है.
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द .
बहुत ही उत्तम रचना है श्रीमान। इसमें आपका ईश्वर का दर्शन अभिव्यक्त हो रहा है।
ReplyDeletePrakash Joshi जी ,रचना की प्रशंसा के लिए सस्नेह धन्यवाद .
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