उसे शिकायत है,
अपने अकेलेपन से ,
और ,
उसे दिक्कत है,
अपने चारों ओर फैले ,
घने कुहरे से,
अजनबीपन से.
कोई नहीं आता ,
उस के पास,
आते और जाते हुए,
कितने सारे लोग .
रुकता कोई नहीं ,
सब के सब
गुजर जाते हैं ,
उस के पार्श्व से .
कभी किसी से ,
मिल जाती है आँख,
नहीं होता कोई भाव,
और ,
कभी नहीं पैदा होता,
अपनत्व भरा सम्प्रेषण .
अपरिचितों का रेला ,
बहता चला जा रहा,
हर एक चेहरे पर ,
अजनबीपन का ,
पुता हुआ,
श्याह काजल .
जिस के कारण ,
सब के सब एक से,
बिम्ब की तरह ,
गुजर जाते हैं .
किसी पानी के ,
बुलबुले की तरह,
बस एक ही परिचय ,
एक सा ही परिचय ,
पानी और बुलबुला ,
आदमी और रेला .
मैं हर बार ,
उस की ओर बढाता हूँ हाथ ,
वो है कि ,
देखता ही नहीं ,
शायद उकरते हुए ,
हर बिम्ब की तरह ,
मेरे बिम्ब को भी ,
वैसा ही मानता है ,
शायद ,
उस में कोई ग्रंथि सी हिचक,
उसे नहीं करती मुक्त ,
या,
वो ही नहीं पाना चाहता मुक्ति .
इसीलिए बढे हुए हाथ ,
उसे दिखाई नहीं देते,
ओर ,
अपने वृत्त से ,
नहीं आता बाहर ,
ओढ़े रहता है ,
सर्दियों के कम्बल की तरह ,
अकेलापन ओर अजनबीपन.
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.
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