आजकल आदमी ,
डरने लगा है ,
अपने ही प्रतिबिम्ब से ,
क्योंकि -
डरना उस की
आदत सी हो गयी .
डर ?
हाँ , वह डर ,
निकलता है ,
अचानक सा ,
चलती रेल के डिब्बों से ,
बसों और ट्रामों से ,
होटलों और धर्मशालाओं से ,
प्लेटफार्मों से ,
बसों के अड्डों से ,
कभी वह डर निकलता है ,
किसी प्रेत सा ,
अस्पतालों की दवाइयों से ,
या, पढ़ने की पोथियों से .
डर -
पीछा ही नहीं छोड़ता है ,
वह रेंगता हुआ चला आता है ,
घर के अन्दर और बाहर ,
अपनों और परायों के मध्य ,
जबरदस्ती धंसा चला आता है ,
किसी ब्रह्म राक्षस की तरह ,
सहम जाती है,
कमलिनी सी तनवंगी सी देह,
और ,
डर के मारे ,
वह थर-थर कांपती हुई,
सूख जाती है ,
धूप खायी कोंपल की तरह.
डर का यह ब्रह्म राक्षस ,
हमें देख अट्टहास लगाता
हम पर प्रश्न-चिह्न मढ़ता जाता ,
मूल्य पोथियों में है कैद ,
आत्मा में नहीं करते रास,
इसीलिए आज भी धरातल ,
बहुत लिजलिजा है ,
और ,
इतना घिनौना कि घिन आती है ,
बहुत दुखी हूँ ,
दिल्ली की खबर सुन कर,
मेरा संध्या-वंदन ,
व्यर्थ हुआ चला जाता है ,
स्वस्ति वाचन तो बेचारा,
सिर धुन-धुन कर ,
बस पगलाया ही जाता है.
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.
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