दागे गए सवाल
अधिकतर होते हैं हिंसक
और इस आघात से
बचने के लिए
हिंसा व प्रतिहिंसा के चलते
बढ़ती है दूरियाँ
मानो समुद्र के पानी से
वक्षस्थल सी सुकोमल धरा पर
उग आता है नमक।
अधिकतर होते हैं हिंसक
और इस आघात से
बचने के लिए
हिंसा व प्रतिहिंसा के चलते
बढ़ती है दूरियाँ
मानो समुद्र के पानी से
वक्षस्थल सी सुकोमल धरा पर
उग आता है नमक।
सवाल दर सवाल के
काफिले के मध्य रहता
खोजता हूँ
अपने रिश्ते-मित्र
अपना स्वत्व और अस्मिता
और इन्हें पाने व बचाने के लिए
कई-कई खड़े कर देता हूँ
नग्न अघोर से भयंकर सवाल
ऐसी स्थिति में
हम विवश से होते ही हैं
जैसे विवश हो जाता है
वन लताओं में बारहसिंगा।
काफिले के मध्य रहता
खोजता हूँ
अपने रिश्ते-मित्र
अपना स्वत्व और अस्मिता
और इन्हें पाने व बचाने के लिए
कई-कई खड़े कर देता हूँ
नग्न अघोर से भयंकर सवाल
ऐसी स्थिति में
हम विवश से होते ही हैं
जैसे विवश हो जाता है
वन लताओं में बारहसिंगा।
सवालों का धड़धड़ाते आना
वक्ष पर चढ़
धम-धम करते हुए
करना घात-प्रतिघात
भयंकर अघोर स्वरूप की
यह दर्शना
कितना पीस देती है
घटिका यंत्र सी
जरा अंदाज भी है किसी को।
वक्ष पर चढ़
धम-धम करते हुए
करना घात-प्रतिघात
भयंकर अघोर स्वरूप की
यह दर्शना
कितना पीस देती है
घटिका यंत्र सी
जरा अंदाज भी है किसी को।
सुनो प्रिये !
मैं स्वयं प्रस्तुत हूँ
धान के पात्र सा,
तुम बैठ जाओ दृढ़ता से
सवालों की घटिका के सम्मुख
मुझे अपने सुकोमल कर से
पूरती चली जाओ
सवालों के पाटों में
मधुर कंठ से
वियोगिनी का गीत सुनाते,
मैं चुपचाप तुम्हारे
अंक को साक्षी रख
पिस जाऊँगा निर्विरोध
बस अनुरोध इतना सा
अंतिम क्षण तक अपेक्षित
संस्पर्श तुम्हारे नेह का।
मैं स्वयं प्रस्तुत हूँ
धान के पात्र सा,
तुम बैठ जाओ दृढ़ता से
सवालों की घटिका के सम्मुख
मुझे अपने सुकोमल कर से
पूरती चली जाओ
सवालों के पाटों में
मधुर कंठ से
वियोगिनी का गीत सुनाते,
मैं चुपचाप तुम्हारे
अंक को साक्षी रख
पिस जाऊँगा निर्विरोध
बस अनुरोध इतना सा
अंतिम क्षण तक अपेक्षित
संस्पर्श तुम्हारे नेह का।
- त्रिलोकी
मोहन पुरोहित, राजसमन्द
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