Thursday 7 January 2016

पराए कम्बल में

शोर शराबे के मध्य 
कभी खोजी गई होती 
तनाव की वजह 
शायद तुम ईमानदारी की राह 
अब भी चल रहे होते 
तुला पर चढ़े हुए 
ठोस बाट की तरह।
फिरंगी बाँट गए 
कभी इस देश को 
सम्प्रदाय के आधार पर 
चेतना विहीन लोग 
झगड़ालू बच्चों की तरह 
बँट गए
विस्तृत देश बदल गया 
टुकड़ों-टुकडों में, 
माँ के जीर्ण आँचल की तरह।
सत्ता की इच्छा में 
चली गई चालें 
सभी को चाहिए था 
सत्ता का शीर्ष पद
फिरंगियों का दिया गया वैश्यवाद 
नये रूप में जन्मा 
जातियों का आधार लिए 
फिर चिंतन विहीन लोग 
लालची बच्चों की तरह 
लग गए छीना-झपटी में 
फलस्वरूप हो गया लहुलुहान देश 
समर स्थल की तरह 
जबकि बचाया जा सकता था 
शीर्षस्थ आसीन लोगों द्वारा 
समभाव प्रेरित योजनाओं से 
जैसे बचाए जाते हैं परिवार 
पितामह की चेतना से।
देश के पास
कुण्डली मार बैठे अजगर से 
अपने ही लोग ले आए 
लाल सुर्ख झंडा 
मजदूर क्रांति के नाम
एकत्रित किए गए 
नीम नींद में डूबे लोग 
हड़बड़ाए बच्चों की तरह 
लोग बनने लगे 
भीड़ का अंश 
फिर बँटा यह देश 
अमीर और गरीब की परिभाषा में 
अध्यायों के आधार पर 
किसी बंधी पुस्तक के भागों की तरह।
चेतना के संवाहकों 
क्यों मरे जा रहे हो? 
फिरंगियों के दिए वादों पर
तुम्हारा देश
चेतना के स्तर पर कंगला तो है नहीं 
जो भीख में मिली चेतना से 
प्रगति के सोपान 
तय करना चाहते हो।
आवश्यकता है
अपनी निजी चेतना को 
स्वीकार करने की 
थोड़ी सी कोशिश करके देख लो 
अपनी चद्दर ही 
अपनी अस्मिता का आधार होती है 
पराए कम्बल में 
अक्सर हीनता का बोध होता है।
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द।


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